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इसी प्रकार यदि आत्मा को सर्वव्यापी माना जायेगा तो सभी आत्माओं का परस्पर मिश्रण होने से संकर दोष की आपत्ति आयेगी तथा आत्मा का पुनर्जन्म भी असंभव हो जायेगा क्योंकि आत्मा तो सभी जगह पहले से व्याप्त है अतः उसका पुनर्जन्म कहां होगा । आकाश की तरह अमूर्त होने से आत्मा को व्यापक मानना भी उचित नहीं क्योंकि न्याय-वैशेषिक मत में मन को भी अमूर्त्त माना गया है पर उसे व्यापक नहीं माना गया है। अतः आत्मा को अणु अथवा सर्वव्यापी न मानकर शरीर परिमाण मानना चाहिए। आत्मा को शरीर परिमाण कहने का तात्पर्य है कि आत्मा को अपने संचित कर्म के अनुसार जितना छोटा-बड़ा शरीर मिलता है, उस पूरे शरीर में व्याप्त होकर वह रहता है। शरीर का कोई भी अंश ऐसा नहीं होता, जहाँ आत्मा न हो। इसका कारण जीव में संकोच - विकोच करने की शक्ति
है।
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सभी आत्माएँ असंख्येय प्रदेशी हैं परन्तु आत्मा में संकोच - विकोच की शक्ति होने के कारण प्रदेश समान होते हुए भी वे कर्मार्जित शरीर में व्याप्त होकर अर्थात् छोटा शरीर मिलने पर अपने आत्म-प्रदेशों का संकोच कर लेती हैं और यदि शरीर बड़ा होता है तो अपने आत्म- प्रदेशों को फैलाकर उसमें व्याप्त हो जाती हैं।
तत्त्वार्थ सूत्र में भी यही लिखा है
असंख्येय भागादिषु जीवानाम् । प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् ।
जिस प्रकार दीपक को छोटे कमरे में रखने से वह उस छोटे कमरे को प्रकाशित करता है और बड़े कमरे में रखने से वह बड़े कमरे को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार आत्मा सम्पूर्ण शरीर में रहता हुआ सम्पूर्ण शरीर को प्रकाशित करता है।