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____2. आत्मा के भेद-प्रभेद
जैन दर्शन में आत्मा के भेद-प्रभेद अनेक दृष्टियों से किये गए हैं। द्रव्य की दृष्टि से सभी आत्माएँ एकरूप हैं, उनमें कोई भेद-प्रभेद नहीं है। आठों कर्मों से मुक्त होने पर मुक्तावस्था को प्राप्त सिद्ध आत्माओं में कोई अन्तर नहीं होता। पर्याय की दृष्टि से आत्माओं में भिन्नता पायी जाती है। आत्मा के वर्गीकरण की जितनी विभिन्नता जैन दर्शन में पायी जाती है, उतनी अन्य किसी दर्शन में नहीं। जैन दर्शन में विविध दृष्टियों से आत्मा के भेद-प्रभेदों का विवेचन किया गया है, जिनमें मुख्य हैं- .
1. चैतन्य गुण की व्यक्तता-अव्यक्तता की अपेक्षा से भेद। . 2. इन्द्रिय की अपेक्षा से भेद। - 3. गति की अपेक्षा से भेद। . 4. अध्यात्म की अपेक्षा से भेद। चैतन्य गुण की अपेक्षा से भेद
आत्मा का गुण चैतन्य है। यह चैतन्य गुण सभी आत्माओं में समान रूप से व्यक्त (प्रकट) नहीं रहता। चैतन्य गुण की व्यक्तता और अव्यक्तता के आधार पर आत्मा के दो भेद किये गए हैं-स्थावर आत्मा और त्रस आत्मा।
- 1. स्थावर आत्मा
जिसमें गमन करने की शक्ति का अभाव होता है, उसे स्थावर आत्मा कहते हैं। जिनमें सुख की प्रवृत्ति और दुःख से निवृत्ति के लिए सलक्ष्य गमनागमन की क्रिया नहीं होती वे स्थावर जीव के अन्तर्गत आते हैं। पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति के जीव स्थावर कहलाते हैं। ये अपने सुख-दुःख के लिए प्रवृत्ति-निवृत्ति नहीं कर सकते। स्थावर काय के जीव निम्नलिखित हैं- ।