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इकाई-2
तत्त्वमीमांसा जैन दर्शन द्वैतवादी दर्शन है। वह जीव और अजीव-इन दो तत्त्वों के स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकार करता है। जीव के लिए जैन दर्शन में आत्मा शब्द का प्रयोग किया जाता है। सिद्ध और संसारी के भेद से आत्मा के मुख्य दो प्रकार हैं। आत्मा अमूर्त होने के कारण इन्द्रिय गम्य नहीं है। फिर भी उसके अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए अनेक तर्क दिये जाते हैं। आत्मा शरीर परिमाण है। अपने कर्मों के आधार पर जैसा छोटा-बड़ा शरीर आत्मा को मिलता है, वह उसी में निवास करता है। आत्मा और शरीर का यह संबंध अनादि काल से चला आ रहा है। जब तक यह संबंध है तब तक पुनर्जन्म की परम्परा चालू रहती है। समस्त कर्मों का क्षय होने पर आत्मा शरीर के बंधन से मुक्त हो जाती है। प्रस्तुत इकाई में आत्मा का स्वरूप, आत्मा के भेद-प्रभेद, आत्मा की सिद्धि, आत्मा का परिमाण, आत्मा-शरीर संबंध, पुनर्जन्म आदि विषयों का विवेचन किया जा रहा
1. आत्मा का स्वरूप आत्म तत्त्व भारतीय दार्शनिकों के चिन्तन का केन्द्र बिन्दु रहा है। आत्मा के अस्तित्व, उसके स्वरूप आदि के विषय में भारतीय मनीषियों ने प्रभूत चिन्तन किया है। पाश्चात्य दर्शन में भी आत्मा पर विमर्श हुआ है। आत्मा की अवधारणा जैन दर्शन में प्रमुख एवं मौलिक है। आत्मा के लिए जैन दर्शन में अनेक नाम प्रयुक्त हुए हैं, उनमें से जीव भी एक है। यद्यपि जो जन्म-मरण करे, वह जीव कहलाता है और आत्मा शब्द से मुक्त आत्मा का बोध होता है। लेकिन जैन दर्शन में जीव और आत्मा एक ही तत्त्व के दो नाम हैं, इनमें कोई भेद नहीं है। सम्पूर्ण जैन आचार मीमांसा आत्मवाद की अवधारणा पर अवलम्बित है अत: आत्म तत्त्व को समझना आवश्यक है।