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आकाशास्तिकाय का स्वरूप..
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण के आधार पर आकाश के स्वरूप को इस प्रकार समझा जा सकता है
द्रव्य की दृष्टि से - यह एक अखण्ड द्रव्य है।
क्षेत्र की दृष्टि से - यह अनन्त और असीम है। लोक और अलोक दोनों में व्याप्त है।
काल की दृष्टि से - यह अनादि, अनन्त और शाश्वत है। भाव की दृष्टि से यह अमूर्त, अभौतिक, चैतन्यरहित एवं अगतिशील है।
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गुण की दृष्टि से यह सभी द्रव्यों को आश्रय स्थान देता है। 4. काल
उत्तराध्ययन सूत्र में काल का लक्षण वर्तना किया गया है। सामान्यतः व्यवहार में प्रयोग आने वाला 'समय' शब्द ही काल का सूचक है किन्तु जैन दर्शन में समय को भिन्न अर्थ में लिया गया है। समय काल का सबसे छोटा हिस्सा है। समय काल का अविभाज्य अंश है। जैन साहित्य में समय का माप इस प्रकार बताया गया है - एक परमाणु को एक आकाश-प्रदेश से दूसरे आकाश-प्रदेश तक जाने में जितना समय लगता है, वह एक समय है। जैन आचार्यों ने इसे इस रूप में भी समझाया है कि आँख की पलक झपकने और खुलने में जितना काल लगता है, उसमें असंख्यात समय बीत जाते हैं अतः समय बहुत सूक्ष्म है।
काल अस्तिकाय द्रव्य नहीं है, क्योंकि इसके प्रदेश प्रचय नहीं होते। काल अप्रदेशी है। काल का केवल वर्तमान समय ही अस्तित्व में होता है। भूत समय तो व्यतीत हो चुका है और भविष्य समय अभी उत्पन्न नहीं हुआ है। वर्तमान समय 'एक' होता है। अतः प्रदेश प्रचय न होने के कारण यह अस्तिकाय नहीं है।
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