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२० : जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय चेलु क्षमण के शिष्य आचार्य सर्पसेन (नागसेन) क्षमण का उल्लेख है।' इसमें पाणिपात्रिक विशेषण जहाँ इन आचार्यों को श्वेताम्बर परम्परा से पृथक् करता है वहीं क्षमण-श्रमण (खमण-समण), यह विरुद इन्हें दिगम्बर परम्परा से पृथक् करता है क्योंकि क्षमण-श्रमण का विरुद दिगम्बर परम्परा में कभी भी प्रचलित नहीं रहा । जबकि श्वेताम्बर परम्परा में चौथी-पांचवीं शताब्दी में यह विशेषण विशेष रूप से प्रचलित रहा है। श्वेताम्बर आगमों के अन्तिम संकलनकर्ता देवर्धिगणि क्षमणश्रमण (खमण-समण) के नाम से जाने जाते हैं। कल्पसूत्रस्थविरावली में इनके पूर्व के आचार्यों को भी क्षमण-श्रमण कहा गया है। चूंकि बोटिक या यापनीय परम्परा का विकास भी उत्तर-भारत की इसी परम्परा से हुआ है। अतः उनमें भी यह विरुद प्रचलित रहा होगा। विदिशा के ये अभिलेख यापनीय परम्परा से संबन्धित हैं, इसकी पुष्टि प्रो० यू० पी० शाह ने भी की है, वे लिखते हैं-आर्यचन्द्र निश्चय ही दिगम्बर (अचेलक) थे और वे सम्भवतः यापनीय संघ से सम्बद्ध थे। प्रो० यू० पी० शाह ने इस अभिलेख के सर्पसेन को नागसेन माना है। कल्पसूत्रस्थविरावली में आर्यकृष्ण और शिवभति की परंपरा में आर्यभद्र, आर्यनक्षत्र, आर्यरक्ष के पश्चात् उल्लेखित आर्यनाग को उपरोक्त शिलालेख के आर्य सर्पसेन नहीं माना जा सकता, क्योंकि इनकी गुरू परंपरा का कल्पसूत्र की परंपरा से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं जुड़ता है फिर भी इस विवेचन के आधार पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि आर्यकुल और भद्रान्वय एवं सर्पसेन का सम्बन्ध निश्चित रूप से यापनीय परंपरा से है।
पहाड़पुर (बंगाल) के एक अभिलेख में काशी की पंचास्तूपान्वय का उल्लेख हुआ है। अभिलेखीय साक्ष्यों एवं शिल्पांकन से यह स्पष्ट है कि मथुरा में जैन परम्परा में स्तूप आराधना की पद्धति प्रचलित थी। यह भी सत्य है कि उत्तर-भारत में सचेल और अचेल परम्पराओं का विभाजन मथरा के आसपास के प्रदेश में ही कहीं हुआ था। अतः सम्भावना यह हो सकती है कि मथुरा से विभाजित होकर जो अचेल शाखा ग्वालियर, देवगढ़ के रास्ते से विदिशा और सांची पहुँची वह आर्यकूल और भद्रान्वय के नाम से जानी जाती हो और इसी प्रकार जो शाखा मथुरा से काशी होती हुई बंगाल को गई वह अपने को पंचास्तूपान्वय के नाम से प्रकट १. जर्नल आफ ओरियन्टल इन्स्टिट्यूट बड़ौदा जिल्द १८ (सन् १९६९) पृ०
२४७-५१ थी इन्स्क्रिप्शन्स आफ रामगुप्त-जी० एस० घइ.
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