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अध्याय 1
जैन और जैनधर्म
1.1 विषय प्रवेश
णमो अरिहंताणं
जैनों के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रार्थना मंत्र की यह प्रथम पंक्ति है। इसका अर्थ है, "मैं उस व्यक्ति को जिसे अरिहंत, अर्हत् कहा गया है, प्रगाढ़ नमस्कार करता हूँ जिसने अपने राग-द्वेष रूपी अंतरंग शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर ली हो।" आदरभाव की यह अभिव्यक्ति व्यक्ति के धर्म, जाति या सामाजिक स्तर की दृष्टि से निरपेक्ष है। यह गुण - विशेषित नमस्कार है ।
जैन शब्द प्राचीन भारतीय भाषा - अर्धमागधी के "जिण " शब्द से व्युत्पन्न हुआ है। यह भाषा 2500 वर्ष या उससे भी पहले भारत के कुछ भागों (विशेषतः मगध और कोशल) की जनभाषा थी। इस 'जिण' शब्द का अर्थ वह व्यक्ति है जिसने आध्यात्मिक विजय प्राप्त कर ली हो, जिसने राग- - द्वेष जैसे दुर्गुणों को पूर्णतः जीत लिया हो। 'जिण' शब्द का संस्कृत रूप 'जिन' है। इसका भी यही अर्थ है । इस आधार पर जैनधर्म का अर्थ वह धर्म है जो जैनों द्वारा पालन किया जाता है । तथापि, हम धर्म की अपेक्षा आत्मविजय के मार्ग को महत्त्व देने के लिये जैनधर्म को 'जैनत्व' ( Jain-ness) के रूप में समझेंगे । वस्तुतः जैनों द्वारा पारस्परिक अभिवादन के समय "जय जिनेंद्र" कहा जाता है । इस शब्द का अर्थ "परमोत्तम जिन की जयकार या उन्हें आदरभाव" है ।
सामान्य रूप से कथन करने पर यह कहा जाता है कि जैनधर्म की स्थापना तीर्थंकरों ने की थी । तीर्थंकर वे महापुरुष या शलाकापुरुष हैं जो जीवन के अशांत समुद्र को पार करने का मार्ग दिखाते हैं। वे आध्यात्मिक पथ के मार्गदर्शक हैं। तीर्थंकर वर्तमान कालचक्र के अवसर्पिणी युग में चौबीस हुए हैं। इसके अतिरिक्त, भूतकाल और भविष्यकाल में भी चौबीस तीर्थंकर हुए हैं और होंगे। इस प्रकार, तीर्थंकर परम्परा का एक अविरत चक्र है। इसी कारण जैनधर्म को अनादि कहा जाता है। वर्तमान युग के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे ।
जैन परम्परा के अनुसार, ऋषभदेव अनेक युगों पूर्व हुए हैं। लेकिन जैनधर्म की ऐतिहासिकता एकमत से तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ, लगभग 2800 वर्ष पूर्व (परंपरागत तिथि 877 - 777 ई. पू.) के समय से मानी जाने लगी है।
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