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जैन धर्म की वैज्ञानिक आधारशिला विस्तारित किया है। इस विस्तार को आध्यात्मिक विकास की सीढ़ी कहा जाता है, जिसे प्रत्येक व्यक्ति को, जैसे-जैसे वह उच्चतम कार्मिक घनत्व से निम्नतम कार्मिक घनत्व की ओर जाने के लिये प्रयास करता है, और अंत में मोक्ष प्राप्त करता हैं, अवश्य चढ़नी होगी।
इस सीढ़ी में चौदह चरण होते हैं जो आध्यात्मिक शुद्धिकरण के चरण हैं। हम इन चरणों को चौदह शुद्धिकरण चरण या गुणस्थान कहेंगे। इस सीढ़ी के चरण जितने ही उच्चतर होगे, आध्यात्मिक शुद्धिकरण या जैनत्व की कोटि भी उतनी ही उच्चतर होगी और कर्म-पुद्गगलों का घनत्व उतना ही कम होगा, अर्थात् गुणस्थानों की संख्या, आध्यात्मिक विकास के अनुपात में होती है :
गुणस्थान की संख्या आध्यात्मिक विकास और, आध्यात्मिक विकास 1/कार्मिक घनत्व और, कार्मिक घनत्व - पापकर्म
चित्र 7.2 में शुद्धिकरण की धुरी पर इन गुणस्थानों के नाम दिये गये हैं। इस धुरी का प्रथम बिंदु आध्यात्मिक शुद्धिकरण का प्रथम चरण है जिस
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अयोग केवली अवस्था सयोग केवली अवस्था क्षीण मोह या क्षीण लोभ (पूर्ण संयम के साथ) उपशांत मोह/ लोभ (पूर्ण संयम के साथ) सूक्ष्म सम्पराय/ लोभ (पूर्ण संयम के साथ) अनिवृत्तिकरण (पूर्ण संयम के साथ) अपूर्वकरण (पूर्ण संयम के साथ) अप्रमत्तविरत प्रमत्तविरत (सम्यक्त्व के साथ) देशविरत (सम्यक्त्व के साथ) अविरत सम्यक्-दृष्टि
मिश्र, सम्यक्-मिथ्यात्व 2 - सासादन सभ्यक-दृष्टि
- मिथ्यात्व/मिथ्यादर्शन शुद्धिकरण के चरण
चित्र 7.2 चौदह चरणों के साथ शुद्धिकरण की धुरी
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