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उपसंहार
शुभ कर्मों से पुण्योदय होता है। यही नहीं, सकारात्मक कार्मनों का अवशोषण नकारात्मक कार्मन - अवशोषणों (के प्रभाव को) को कम करता है, फलतः, संसारी आत्मा की शुद्धि बढ जाती है। इस प्रकार कर्म पुद्गल और आत्मा एक न्यूक्लीय अभिकारक की कोटि का कार्मिक अभिकारक बनाते हैं और इससे उत्सर्जित प्रबल ऊर्जा आत्मा के शुद्धिकरण की प्रक्रिया के समान है
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अभिक्रिया
न्यूक्लियस + न्यूक्लियस → विद्युत की ऊर्जा → आत्मा की शुद्धि
आत्मा + कर्म
ऊर्जा
इन क्रियाओं को निरूपित करने के लिये जैन धर्म में बंध ( कर्म - बंध), आस्रव (कर्म- बल अवशोषण) आदि शब्द प्रयुक्त किये गये हैं । जिस प्रकार आधुनिक भौतिकी का आधार विभिन्न प्रकार के बल हैं, उसी प्रकार जैनधर्म का आधार भी कर्म - ब -बल है। जिस प्रकार आधुनिक विज्ञान पदार्थ और ऊर्जा की अन्योन्य- परिवर्तनीयता में विश्वास करता है, उसी प्रकार कर्म - पुद्गल और आत्मा के बीच भी क्रिया-प्रतिक्रिया होती है। इस द्रव्यमान और ऊर्जा की समकक्षता के लिये जैनों ने पुद्गल शब्द (पुद् - संयोजन, गल - वियोजन) का उपयोग किया है। आधुनिक विज्ञान में इस प्रकार की धारणा के लिये ऐसा कोई शब्द नहीं है, क्योकि आधुनिक विज्ञान की शब्दावली यूनानी या लेटिन भाषा से उद्गमित है ।
2. कर्म-बंध और शाकाहार
हमारा लक्ष्य इन कार्मन कणों के अन्तर्ग्रहण की मात्रा को अल्पीकृत करना है । यह एक महत्त्वपूर्ण कारण है जिससे शाकाहार जैन - जीवन का एक अनिवार्य अंग बना है। जैन लोग प्याज वगैरह (कंदमूल) नहीं खाते, पर वे भूमि पर उत्पन्न होने वाले सेव-जैसे फल आदि खाते हैं। आप इस प्रवृत्ति का कारण समझने पर आश्चर्यचकित हो जायेंगें। जैनों द्वारा यह कारण दिया जाता है कि सेव की तुलना में प्याज में जीवन की इकाइयां अधिक होती हैं। सेव के एक पेड़ से अनेक सेव प्राप्त होते हैं, लेकिन एक प्याज से केवल एक ही प्याज मिलता है। इस प्रकार प्याज में सेव की अपेक्षा जीवन की इकाइयां अधिक होती हैं । फलतः, प्याज के खाने से, सेवों की तुलना में, अधिक कार्मनों का अंतर्ग्रहण होता है। इस धारणा को अन्य खाद्यों पर भी लागू किया जा सकता है। इस प्रकार, जैन लोग अति कठोरता से शाकाहार का पालन करते हैं । वे लोग मांस, मछली और अंडे भी नहीं खाते। वे अपने को अन्न, भूमि पर उगनेवाली शाकें एवं दुग्ध उत्पादों तक ही सीमित रखते हैं।
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