Book Title: Jain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Author(s): Kanti V Maradia
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 168
________________ 143 4. उ.6.1 परस्परोपग्रहो जीवानाम् (तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय 5, सू. 21) 5. उ.6.2 पुरिसा, तुमेव तुं मित्रः किं बहिया मित्र-मिच्छसि। . (आचारांगसूत्र, अध्याय 3 सू. 125) 6. उ.6.3 सच्चे जीवावि इच्छंतिं जीवियं न मरिज्जियं। (दशवैकालिकसूत्र, अध्याय 6 गाथा 10) 7. उ.6.4 मा पमायए (उत्तराध्ययनसूत्र, अध्याय 10 गाथा 1) 8. उ.6.5 मैत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थानि सत्वगुणाधिक-क्लिश्यमाना विनेयेषु। (तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय 7 सूत्र 6) 9. उ.7.1 ज्ञानं बलाबलं (योगशास्त्र, अध्याय 1 गाथा 64) 10. उ.8.1 स गुप्ति-समिति-धर्म-अनुप्रेक्षा-परीषह-जय-चारित्रैः । (तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय 9 सूत्र 2) 11. उ.8.2 णाणेन जाणि भावे, दंसणेण य सुद्ददहे। चारित्रेण णिगिण्हइ तवेण परिसुज्जई।। (उत्तराध्ययनसूत्र, अ. 28 गाथा 35) 12. उ.8.3 सम्यग्-दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः । (तत्त्वार्थसूत्र, अ. 1, सू.1) 13. उ.8.4 प्रथमं ज्ञानं, ततो दया। (दशवैकालिकसूत्र, अ. 4, गा. 10) 14. उ.8.5. मासे मासे तु जो बालो, कुसग्गेणवच तु भुजे। __ण सो सुक्खाय, धम्मस्स, कलं अग्घई सोलसिं। (उत्तराध्यधनसूत्र, अ. 9, गाथा 44) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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