Book Title: Jain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Author(s): Kanti V Maradia
Publisher: Parshwanath Vidyapith
View full book text
________________
परिशिष्ट - 3
उद्धरण
अ : स्वतःसिद्ध अवधारणायें (गा. : गाथा, सू. : सूत्र, अ. : अध्याय) स्वतःसिद्ध अवधारणा 1 1. जीव इति ......... कर्म-संयुक्तः ।
(पंचास्तिकाय-सार, गाथा 27) 2. यथाप्रवृत्त-करणम् इति अर्थः
(विशेषावश्यक-भाष्य, गाथा 1202) स्वतःसिद्ध अवधारणा 2 3. नारक-तिर्यङ्-मनुष्या-देवा इति नाम संयुक्ताः प्रकृतयः ।
(पंचास्तिकाय-सार, गाथा 55) 4. कर्मावरण-मात्रायाः तारतम्य-विभेदतः।
(नथमल मुनि, विजडम ऑफ महावीर, अध्याय 2, पेज 70) स्वतःसिद्ध अवधारणा 3 5. परिणामात् कर्म कर्मणो भवंति, गतिषु गतिः।
(पंचास्तिकाय-सार, गाथा 128) स्वतःसिद्ध अवधारणा 4 अ 6. मिथ्यादर्शन-अविरति-प्रमाद-कषाय-योगाः बंधहेतवः।
(तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय 8 सूत्र 1) स्वतःसिद्ध अवधारणा 4 ब 7. ....प्राणिघातेन...सप्तमं नरकं गतः। 8. मातेव सर्व-भूतानां अहिंसा हितकारिणी। 9. अहिंसायाः फलं सर्व किमन्यत्, कामदैव साः ।
(योगशास्त्र, अध्याय 2, गाथा 27, 51, 52) स्वतःसिद्ध अवधारणा 4 स तपसा निर्जरा च।
तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय 9 सूत्र 3 बः ग्रंथो के उद्धरण : (उद्धरण : उ.) 1. उ.3.1 सब्बे करेइ जीवो, अज्झवसाणेण तिरियणेरइये। देव-मणवे य सव्वे, पुण्णं पावं च अणेयविहं।।
(समयसार, गाथा 268) 2. उ.5.1 शुभः पुण्यस्य, अशुभः पापस्य
(तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय 6 सूत्र 3) 3. उ.5.2 सकषायत्वात् जीवः कर्मणो ..... आदत्ते, स बंधः।
(तत्त्वार्थसूत्र, अ. 8 सू. 2)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
![](https://s3.us-east-2.wasabisys.com/jainqq-hq/cadd67e2462c56d2317f01570640383e44129ee9c25a290a0f9e428d8c1f6056.jpg)
Page Navigation
1 ... 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192