Book Title: Jain Dharm ki Vaignanik Adharshila
Author(s): Kanti V Maradia
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 154
________________ उपसंहार 129 __ "जो व्यक्ति धार्मिक दृष्टि से प्रबुद्ध होता है, वह, मुझे ऐसा लगता है, जैसे उसने अपनी योग्यतानुसार स्वयं को स्वार्थ-प्रेरित आकांक्षाओं की बेड़ियों से मुक्त कर लिया हैं।" __ वास्तव में यह जैनधर्म की ही परिभाषा है। 5. आत्म-संयम एवं पर्यावरण की समस्यायें आत्म-शोधन सम्बन्धी निर्देशों में संतुलित जीवन जीने का प्रयत्न करना और कुछ सीमा तक व्रतों (विरतियों) और तपस्याओं का अभ्यास करना समाहित है जिससे व्यक्ति, विश्व और उसके साधनों पर अधिभार न पड़े। जैनों के अहिंसा के सिद्धान्त का निहितार्थ न केवल स्वयं के प्रति प्रीति करना ही है, अपितु सभी प्राणियों और मनुष्यों के प्रति अनुकम्पा की भावना भी है। यहां तक कि घरेलू जानवरों को भी, कभी-कभी छोड़कर, न रस्सी से और न कोड़ों से ही मारना चाहिये। जब ऐसा करना भी पड़े, तो समुचित विचार एवं बिना क्रोध के साथ दयालुता के साथ ऐसा करना चाहिये। संग्रह या परिग्रह और व्यक्तिगत भोग-विलास में आसक्ति की प्रवृत्ति को अल्पीकृत करना चाहिये और दान की प्रवृत्ति अपनानी चाहिये। सम्पत्ति और परिग्रह के प्रति राग और उसके एकत्र करने की इच्छा, मोह और मूर्छाकारक स्थिति है (मूर्छा परिग्रहः, तत्त्वार्थसूत्र 7.17)। जैनधर्म ने सामान्यतः व्यक्तिगत सम्पत्ति को ट्रस्टी के रूप में समाज कल्याण के लिये प्रबन्धित करने की प्रवृत्ति को प्रेरित किया है अर्थात् जैनधर्म ने सामाजिक सम्पत्ति की धारणा का आह्वान किया है। इस दृष्टि से सदैव सम्पूर्ण जागरूकता महत्त्वपूर्ण है। जिस प्रकार एक मिनट के नकारात्मक विचार (अशुभ, पाप) असंयमित जीवन में भारी कार्मन कणों के अंतर्ग्रहण से बरवादी उत्पन्न कर सकते हैं, उसी प्रकार संयमित जीवन में एक मिनट के सकारात्मक विचार (पुण्य या शुभ) लघुतर कार्मन कणों के अन्तर्ग्रहण से स्थायी शांति और एकता को उत्पन्न करते हैं (देखिये, टोबायास, 1991, पेज 90)। पर्यावरण के संरक्षण के महत्त्व को आत्मा के कार्मिक घनत्व के वर्ण-कूट या लेश्या के सिद्धान्त के माध्यम से निदर्शित किया गया है। इस वर्ण-कूट के छह क्रमिक स्तर हैं : कृष्ण, नील, कापोत, पीत, रक्त या कमल-गुलाबी और दीप्तिमान तैजस, शुक्ल। इनमें पहले तीन स्तर भारी कर्म-घनत्व (पाप) के प्रतीक हैं जबकि बाद के तीन स्तर लघुतर कार्मिक घनत्व के प्रतीक हैं। जे. एल जैनी (1916) ने इन स्तरों को मानव के आभा मंडल से सम्बन्धित किया है। व्यवहार में, एक पेड़ से फलों को प्राप्त करने की लोककथा की अनुरूपता के आधार पर इन रंगों के स्तर को वर्गीकृत किया गया है। प्रथम स्तर (कृष्ण) का व्यक्ति पेड़ के फलों को प्राप्त करने के लिये समूचे पेड़ को काट डालता है। दूसरे स्तर का व्यक्ति इसकी डालों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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