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उपसंहार इस पुस्तक के प्रथम संस्करण के बाद लेखक को इस पुस्तक की विषय-वस्तु के सम्बन्ध में अनेक सामान्य और विशेष संगोष्ठियों में भाग लेने का अवसर मिला है। इन व्याख्यानों ने मुझे यह अवसर प्रदान किया कि इस पुस्तक में प्रस्तुत मुख्य धारणाओं को एक एकल संगोष्ठी में प्रस्तुत करने का आधार बनाया जाय। इसके अनुरूप ही यहां हम इसका सार मात्र (मरडिया, 1991) दे रहे हैं जो नयी पीढ़ी के लिये, विशेषतः, उपयोगी होगा। अपने ज्ञान के संवर्धन के लिये सद्य:-प्रकाशित पुस्तकों – एल. एम. सिंघवी (1991), अतुल शाह (1990) और माइकेल टोबायास (1991)- को पढ़ने के लिये मेरी अनुशंसा होगी। 1. कार्मन कण और कर्मों का व्यक्तिगत कंप्यूटर (संगणक) आइन्स्टीन ने कहा है,
" विज्ञान के बिना धर्म अंधा है
और धर्म के बिना विज्ञान पंगु है" __ इस दृष्टि से जैनधर्म धर्म होने के साथ विज्ञान भी है। जैनधर्म का प्रत्येक पक्ष विश्व और उसमें विद्यमान जीव और अजीव वस्तुओं के परिज्ञान पर आधारित है। आधुनिक विज्ञान सत्य के अंश का प्रकाशन करता है। यह पदार्थ को बलों और लघुतर कणों के रूप में व्याख्यायित करता है। इलेक्ट्रॉनों के माध्यम से विद्युत हमारे निवास कक्ष को प्रकाशित करती है, विद्युत चुम्बकीय बलों के माध्यम से रेडियो तरंगें लाउडस्पीकर की ध्वनि को उत्पन्न करती है। ऐसे अन्य अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। जैनधर्म भी ऐसे ही अदृश्य लघुतर कणों और आत्मा की अन्योन्यक्रिया के माध्यम से जीवन को व्याख्यायित करता है। जैनों के लघुतर कण कर्म-कण या कार्मन-कण (ऐसे कण जिनमें कर्म-रूप धारण करने की क्षमता होती है) हैं। ये कर्म कर्म-बल का निर्माण करते हैं। हम अपनी विभिन्न प्रकार की क्रियाओं द्वारा इन कार्मन-कणों का निरंतर अवशोषण (आस्रव) करते रहते हैं और इनमें से कुछ को उनके प्रभाव के संपन्न होने के बाद निर्गमित करते रहते हैं। इस प्रकार, आत्मा के साथ एक कार्मिक कंप्यूटर लगा हुआ है। यह व्यक्तिगत कार्मिक कंप्यूटर कर्मों के अवशोषण एवं निर्गमन का सारा अभिलेख रखता है। यही नहीं, यह पूर्वजन्म के समान पुराने अभिलेखों के आधार पर कुछ कर्तव्य और दिशाओं का भी निर्देशन करता है। उदाहरणार्थ, आपके कार्मिक कंप्यूटर में आपको इस पुस्तक के पढ़ने का संदेश है या जैनधर्म के विषय में सोचने-विचारने का संदेश है। यह एक अच्छी क्रिया है, फलतः आत्मा सकारात्मक कार्मनों या शुभ कर्मों का अवशोषण करता है। इन
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