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आत्म-विजय का मार्ग
सारणी 7.3: अन्तिम तीन गुणस्थानों की सूची और उनका स्तर
चरण
12.
13.
14.
नाम
क्षीण कषाय या लोभ-विलोपन के साथ पूर्ण संयम
1.
क्रियाशील सर्वज्ञ दशा / सयोगकेवली अक्रिय सर्वज्ञता / अयोगकेवली
स्तर
यहां यह ध्यान में रखना चाहिये कि
चौथा गुणस्थान अविरत - सम्यक् दृष्टि है अर्थात् इसमें अविरति के साथ प्रबुद्ध दृष्टिकोण (सम्यक्त्व) होता है ।
2. पांचवे गुणस्थान में अणुव्रतों वाली श्रावक अवस्था प्राप्त होती है।
3.
छठें गुणस्थान में उच्चतर व्रतों के स्तर वाली साधु अवस्था प्राप्त होती है ।
तीर्थंकर
मोक्ष की ओर
4.
सातवां गुणस्थान लगभग उपाध्याय की अवस्था के समान होता है। 57. आठवें, नवें और दसवें गुणस्थान में संघ के नायक अर्थात् आचार्य के समान स्थिति होती है ।
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8–9. बारहवें और तेरहवें गुणस्थान तीर्थंकर या सयोगकेवली की अवस्था है । 10. चौदहवां गुणस्थान मोक्षप्राप्ति के पूर्व की सर्वज्ञ या अयोगकेवली की
अवस्था है।
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इन गुणस्थानों को हम लगभग व्यक्तित्व के विभिन्न रूपों से सह-सम्बन्धित कर सकते हैं। यहां पहला गुणस्थान तो आदिम जातीय व्यक्तित्व का निरूपक है। दूसरा गुणस्थान उच्चतर स्तर से आदिम स्तर की ओर अधःपतन वाली आदिम अवस्था है। तीसरा गुणस्थान भ्रामक व्यक्तित्व का निरूपक हैं। चौथे, पांचवे और छठें गुणस्थान क्रमशः ठोस, सुसंस्कृत, और प्रगत व्यक्तित्व के निरूपक हैं। सातवें गुणस्थान में प्रगत व्यक्तित्व में अप्रमादता एवं सावधानी आ जाती है। शेष गुणस्थान आध्यात्मिक या अलौकिक व्यक्तित्व के विभिन्न स्तरों के निरूपक हैं ।
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7.6 गुणस्थानों के स्तरों एवं संक्रमणों का योजनाबद्ध निरूपण
अब यहां गुणस्थानों के उपर्युक्त विवेचन के अनुरूप धारणाओं को परिमाणात्मक रूप में व्यक्त करना उपयोगी होगा। हमने अध्याय 5 में बताया है कि चारो कषायों में से प्रत्येक की पांच कोटियां होती हैं 0,1,2,3 और 4। अब यहां यह प्रश्न उठता है कि कषायों के समान हम कर्म-बंध के कारणों की कोटि कैसे आवंटित करें ? अध्याय 6 के विवेचन को स्मरण
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