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जैन धर्म की वैज्ञानिक आधारशिला उपरोक्त पंचपदी (देखिये, 9.2) को इन ग्रहों के समान गुणवाले किसी भी नये ग्रह पर लागू कर सकते हैं। इस स्थिति मे हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि यह नया ग्रह विश्वीय दृष्टिकोण से गोल है, लेकिन क्षेत्रीय दृष्टि से गोल नहीं है।
इस प्रकार, हम प्रत्येक प्रकरण में सापेक्ष समग्रता या अनेकांतवाद के सिद्धांत पर पहुंच जाते हैं। प्रत्येक वस्तु पर अनुप्रयुक्त सापेक्ष कथन माला के वे मनके हैं जो अनेकांतवाद के धागों से एक-दूसरे से गुंथे हुए हैं। 9.5 विवेचन
इस अध्याय में हमने जैन तर्कशास्त्र एवं दर्शन के केवल अल्पांश को ही विवेचित किया है। यहां यह ध्यान देने की बात है कि अनेकांतवाद पर आधारित कथन प्रत्येक तंत्र के मुख्य बिंदु हैं।
है यह सिद्धान्त तत्त्वशास्त्रीय प्रश्नों पर भी अनुप्रयुक्त होता है। प्रत्येक द्रयं के तीन पक्ष होते हैं : 1. द्रव्यत्व 2. गुण और 3. पर्याय। साथ ही, किसी भी ऐहिक पक्ष के लिये, प्रत्येक परिस्थिति में चार महत्त्वपूर्ण कारक होते हैं : 1. विशिष्ट वस्तु 2. विशिष्ट क्षेत्र, 3. विशिष्ट समय एवं 4. विशिष्ट अवस्था। अनेकांतवाद का सिद्धांत किसी भी वस्तु को इन चारों बहु-आयामी पक्षों से देखने का प्रयत्न करता है। व्यावहारिक दृष्टि से, इस सिद्धान्त का निहितार्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को अतिवादी दृष्टिकोण नहीं अपनाना चाहिये एवं संकुचित दृष्टिकोण के बदले व्यापक दृष्टिकोण से ही सोचना चाहिये।
माटीलाल (1981) ने तर्क-संगत रीति से बताया है कि अनेकांतवाद का सिद्धांत संश्लेषण का दर्शन है। इसका सार यह है कि विभिन्न दार्शनिक तंत्रों में विद्यमान धारणाओं या दृष्टिकोणों को व्यापक दृष्टि से प्रस्तुत किया जाय। दार्शनिक विधि-विद्या के रूप में यह दो पंखों पर उड़ता है : 1. नयवाद का सिद्धान्त एवं 2. सापेक्ष कथन सिद्धान्त।
सापेक्ष कथन सिद्धान्त के परिमाणात्मक अध्ययन को प्रेरित करने के लिये हाल्डेन (1957) का लेख देखिये। इसमें यह बताया गया है कि हम इस सिद्धान्त को पावलोव के शिक्षण सम्बन्धी प्रयोगों में कैसे अनुप्रयुक्त कर सकते हैं ? मरडिया (1975, 1988) ने कुछ अन्य पक्षों का संकेत दिया है जिनमें कार्ल पॉपर (1968) और जैन तर्कशास्त्र के सम्बन्ध भी समाहित हैं। कार्ल पॉपर ने तो यह बताया है कि हम पूर्णतः सत्य वैज्ञानिक नियमों को नहीं जान सकते। इस विषय के विस्तृत निरूपण के लिये, कृपया टाटिया की पुस्तक (1984) देखिये। जैन पंचपदी के लिये, जे. एल. जैनी (1916) की
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