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शुद्धिकरण के उपाय
7. उत्तम तप
बाह्य और अंतरंग तपस्याओं का अभ्यास उत्तम त्याग चेतन और अचेतन परिग्रहों का त्याग 9. उत्तम आकिंचन्य। स्वकीय ममत्व-बुद्धि का त्याग, अपरिग्रह 10. उत्तम ब्रह्मचर्य स्त्री सम्बन्धी गुण-स्मरण, कथा-श्रवण, संसर्ग आदि का
त्याग
यहां धर्म शब्द का अर्थ विविध प्रकार के नैतिक गुण और कर्तव्यों का अभ्यास है और उत्तम शब्द का अर्थ इन गुणों और कर्तव्यों की परिपूर्णता है। 4. अनुप्रेक्षा या भावना : 'अनुप्रेक्षा' का निहितार्थ है वारंबारता-पूर्वक
मानसिक चिंतन जिसमें चित्त को लगाया जाता है। ये अनुप्रेक्षायें बारह होती हैं। इनका पारम्परिक विवरण तो इन्हें लगभग नकारात्मक रूप देता प्रतीत होता है, लेकिन गुरुदेव चित्रभानु (1981) ने इनकी पर्याप्त सकारात्मक व्याख्या की है। हम यहां दोनों प्रकार की व्याख्याओं को
सहयोजित करेंगे। उपरोक्त बारह भावनायें निम्न हैं : 1. अनित्यत्व : हमारे चारों ओर विद्यमान सभी चीजें अस्थायी हैं, कुछ ही
समय रहने वाली हैं। लेकिन इस परिवर्तनशील जगत् में केवल एक ही
स्थायी वस्तु है - आत्मा। 2. अशरणत्व : मृत्यु के समय हमारा कोई शरण या रक्षक नहीं होता,
लेकिन अंदर एक अदृश्य एवं आंतरिक बल सदैव रहता है। 3. संसार (पुनर्जन्म का चक्र) : यह संसार दुःखमय है। इसमें जन्म और
मृत्यु का चक्र चलता रहता है। इस चक्र से मुक्ति भी संभव है। 4. एकत्व : जब मनुष्य संसार चक्र से पार होता है, तब वह नितांत अकेला
ही रहता है। इसलिये उसे आत्मनिर्भरता का अभ्यास करना चाहिये। 5. अन्यत्व : हमारा शरीर और आत्मा (और उनके गुण) भिन्न-भिन्न है। हम
केवल शरीर मात्र या भौतिक ही नहीं हैं। हमें आत्मा के अस्तित्व की
अनुभूति के माध्यम से जीवन का सही अर्थ समझना चाहिये। 6. अशुचित्व : हमारा शरीर अनेक प्रकार के अपवित्र पदार्थों से बना हुआ
है। यहां तक कि भौतिकतः अत्यंत आकर्षक शरीर में अनेक प्रकार के अपवित्र पदार्थ रहते हैं।
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