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जैन धर्म की वैज्ञानिक आधारशिला
सम्यक्त्व के उत्तरवर्ती चार चरण सकारात्मक हैं, जो ये निम्न हैं :
5. उपगृहन/संरक्षण ..: समुचित मार्गदर्शन द्वारा लोगों की आलोचनाओं
से जैन विश्वासों का संरक्षण और अतिचारी या अनाचारी मार्गच्युत सजातीय का समुचित
उपदेश व निर्देश द्वारा सन्मार्ग में पुनः आनयन 6. स्थितिकरण
: संशयालु लोगों को जैन-मार्ग में स्थिर रखने के
प्रयास 7. प्रभावना -
: ऐसे सकारात्मक कार्य करना जो जैन धर्म के
प्रभाव को संवर्धित करें. 8. वात्सल्य/
: मोक्ष के आदर्श के प्रति निस्वार्थ श्रद्धा और स्वामि-वात्सल्य
उसके मार्ग का उपदेश देने वाले गुरुओं के
प्रति भक्ति 8.3 जैन श्रावकों के लिये पांचवां गुणस्थान
पाचवें गुणस्थान में जैन श्रावकों के लिये त्याग, विरति या साधना-मार्ग के निम्न ग्यारह आदर्श चरणों (प्रतिमाओं) के पालन का निर्देश है। इन्हें उप-चरण या उप-सापान कहा जा सकता है। इन उप-चरणों की सीढ़ी चित्र 8.1 में प्रदर्शित की गई है। इसमें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण चरण श्रावकों द्वारा प्राथमिक (स्थूल या अणु) व्रतों का स्वीकार करना है। इनमें भी पांच अणुव्रत सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है, जो निम्न हैं : 1. दो या अधिक इंद्रिय वाले जीवों को कष्ट/पीड़ा पहुंचाने का वर्जन या
परित्याग (अंहिसा) 2. सत्य का पालन या असत्य का परित्याग (सत्य) 3. बिना दी हई वस्तु का न लेना या चोरी न करना (अचौर्य या अदत्तादान
का त्याग) 4. विवाहेतर यौन-संबंध का त्याग (ब्रह्मचर्य) 5. परिग्रह या संपत्ति का परिसीमन (अ-परिग्रह)
इन अणुव्रतों को प्रबल करने के लिये पूरक के रूप में इनके कुछ अतिरिक्त सहायक व्रत भी होते हैं। इनके विवरण के लिये पी. एस. जैनी (1979, पेज 87) तथा विलियम्स (1963) की पुस्तकों का अध्ययन कर सकते हैं। .
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