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जैन धर्म की वैज्ञानिक आधारशिला
उच्चतम रहती है। लेकिन, स्वतःसिद्ध अवधारणा प्रथम के अनुसार, प्रत्येक आत्मा कर्म-बंध के कारण आवरित अपने चारों घटकों को मुक्त कराना चाहता है। यह प्रक्रिया दो प्रकार से आरम्भ की जा सकती है :
1. आंतरिक अनुभूति : जैसे पूर्व जन्मों का स्मरण 2. बाह्य अनुभूति : जैसे जैन उपदेशों का सुनना'
प्रथम चरण से अगले दो चरणों (दूसरे और तीसरे गुणस्थान) से पार होते समय एवं चौथे चरण की ओर बढ़ते समय एक चमक प्रकट होती है। यह चौथा चरण अविरत-सम्यक-दृष्टि का है। इस चरण में जीवन और आत्म-तत्व की प्रकृति पूर्णतः उद्घाटित होती हैं अर्थात् सम्यक्-दर्शन प्राप्त होता है।
सम्यक-दर्शन की यह प्रथम अनुभूति कुछ ही क्षण रहती है और यह दर्शन मोहनीय-कर्म के क्षय से नहीं, अपितु उपशमन से उदय से आती है। यह उपशमित घटक शीघ्र ही अनुपशमित हो जाता है और पुनः अपना प्रभाव प्रदर्शित करता है। फलतः, आत्मा पुनः समस्त कर्म-बंध के कारकोंमिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, एवं योग के प्रबल प्रचालन के साथ पुनः मिथ्यात्व गुणस्थान में प्रत्यावर्तित हो जाता है। तथापि, इस अवपतन के समय, आत्मा कुछ समय के लिये तीसरे शुद्धिकरण-चरण से पार होता है जहां स्थूल कषायें तो उपशमित अवस्था में रहती हैं लेकिन वहां सम्यक्त्व/सम्यक्-दर्शन/प्रबुद्ध दृष्टिकोण नहीं रहता। इस चरण को प्रबुद्ध एवं भ्रांत दृष्टिकोण के मिश्रण (सम्यक-मिथ्यात्व) का चरण कहते हैं। इसका पूर्ववर्ती चरण द्वितीय चरण-सासादन गुणस्थान है। यह अस्पष्ट अभ्रांत या अप्रबुद्ध दृष्टिकोण है। यहां कषायों की चौथी कोटि दृढ़तापूर्वक अपना प्रभाव प्रदर्शित करती है और तत्काल ही आत्मा को पुनः प्रथम चरण में अवपतित कर देती है। चौथे चरण के इस पहले संक्रमण में, दर्शन मोहनीय-कर्म का केवल उपशम ही होता है, लेकिन इसके उत्तरवर्ती संक्रमण की स्थिति अधिक होती है और इसमें इस घटक का आंशिक विलोपन भी होता है। इस प्रकार के आंशिक उपशमन एवं विलोपनकारी अनेक संक्रमणों के बाद, आत्मा चतुर्थ चरण में दृढता से स्थिर हो जाता है और वह पांचवें और आगे के चरणों की ओर बढ़ने लगता है जैसा कि आगे बताया गया है। सारणी 7.1 में इन चारों चरणों का संक्षेपण दिया गया हैं : . .
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