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आत्म-विजय का मार्ग
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सारणी 7.1 प्रथम चार गुणस्थानों की सूची एवं उनका (भावात्मक) स्तर
चरण
नाम
स्तर
मिश्र
मिथ्यात्व (भ्रांत दृष्टिकोण) भ्रांत या मिथ्यात्व की दशा सासादन
अस्पष्ट दृष्टिकोण
भ्रांत. तथा अभ्रांत दृष्टिकोण अविरत सम्यक-दृष्टि असंयत दृष्टिकोण, शुद्धिकरण की
ओर प्रथम चरण 7.3.2. चतुर्थ गुणस्थान का चरण और दृश्य संकेत
- चौथे गुणस्थान में भ्रांत दृष्टिकोण दूर हो जाता है और समता का भाव प्रकट होता है। इस प्रकार की शुद्धि के कारण ही इस चरण में सत्य दृष्टि (सम्यक्त्व) की चमक प्रकट होती है। इस चरण में चारों कषायों की चौथी कोटि के अपनयन से आत्मा के वीर्य एवं ज्ञान घटकों की वृद्धि होती है जिससे वह सम्यक-ज्ञान के अन्वेषण की ओर पहले की अपेक्षा अधिक प्रबलता से संलग्न होता है। इसके साथ ही, इस चरण में : 1. अपने शरीर तक को निर्मित करने वाले कर्म-पुदगलों की अभिव्यक्ति या
उनके उदय को कम महत्त्व मिलने लगता है। 2. चार कषायों के कारण उत्पन्न मनोवैज्ञानिक दशाओं का महत्त्व कम होने
लगता है। 3. व्यक्तिगत परिग्रहों का महत्त्व भी कम होने लगता है जिन्हें वह
अपनी पहचान मानता था। इसके फलस्वरूप आत्मा शांत दशा को प्राप्त करता है। दृष्टिकोण और अन्तरात्मा
चतुर्थ गुणस्थान में आत्मा की शांतदशा से "मैं कौन हूं" के समान प्रश्नों के समाधान के लिये प्रेरणा मिलती है। यह दृष्टिकोण आत्मा के (अंतर) दर्शन घटक को वीर्य घटक के प्रभाव से और भी बलवान बनाता है जिसका अनुभव इसके पहले कभी नहीं हुआ था। इस दशा में और कर्म-पुद्गल अपनयित हो जाते हैं। इस दशा में स्थिर सम्यक्त्व की प्राप्ति और भी सम्भव हो जाती है। व्यक्ति पूर्ववर्ती तीनों अवधारणाओं की सत्यता के प्रति जागरूक हो जाता है। इस प्रकार, कर्म बलों के प्रभाव को अपनयित करने का उद्देश्य स्पष्ट होता है जिससे आत्मा के वीर्य घटक में और भी वृद्धि होती है। इस चरण में सम्यक्त्व के बाधक सभी कारक अपना प्रभाव
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