________________
अध्याय 7 आत्म-विजय का मार्ग
(स्वतःसिद्ध अवधारणा 4 स) स्वतःसिद्ध अवधारणा 4 स तप का अभ्यास न केवल नये कार्मन कणों या कर्म-पुद्गलों के आस्रव के लिये कार्मिक-सुरक्षा कवच बनाता है, अपितु यह पूर्वार्जित कर्म-पुद्गलों की निर्जरण प्रक्रिया में भी योगदान करता है। 7.1 स्वतःसिद्ध अवधारणा 4 स
पूर्व-वर्णित स्वतःसिद्ध अवधारणाओं - 4 अ, एवं 4 ब से हमें यह ज्ञात है कि कार्मन-कण आत्मा में कैसे आस्रवित होते हैं। फिर भी, अध्याय 6 से यह स्पष्ट है कि आध्यात्मिक विकास के दो प्रमुख उद्देश्य हैं : 1. कर्म-कवच (संवर) के द्वारा नये कार्मन-कणों के आस्रव को रोकना तथा 2. पूर्व-अर्जित कर्म-पुद्गलों का पूर्णतः निःसरण या निर्झरण। यदि ये उद्देश्य पूर्ण होते हैं, तो आत्मा अपनी शुद्ध अवस्था को प्राप्त करेगा और उसके सभी चारों कोटियों- अनंत वीर्य, अनंत सुख, अनंत ज्ञान और अनंत दर्शन- के सामर्थ्य अभिव्यक्त होगें। इन कोटियों का विवरण अध्याय 2 में दिया गया है।
ऐसा विश्वास किया जाता हैं कि आत्मा का पूर्ण सामर्थ्य केवल तभी व्यक्त हो सकता है जब मन, वचन और काय की भावात्मक क्रियाओं के अनुरूप होने वाले कर्म-पुदगलों के बंध और प्रभाव को पूर्णतः दूर कर दिया जाय। जैसा कि हमने पूर्व के वर्णन में देखा है कि उपरोक्त सभी क्रियायें बाह्य हैं जो कर्म-क्षेत्र में अविरत-रूप से, न्यूक्लीय अभिकारकों में होने वाली क्रियाओं के समान, अंतरंग क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं को जन्म देती रहती हैं। इसके साथ ही, आत्मा के साथ एक संगणित्र (कार्मिक कंप्यूटर) भी संलग्नित होता है जो इन क्रिया-प्रतिक्रियाओं का तत्कालीन अभिलेख रखता है और उचित समय पर उनके संबंध में निर्देश भी देता रहता है। अब यहां प्रश्न यह है कि 1. प्राणी कर्म-पुदगलों को कैसे वियोजित या निर्जरित कर सकता है, और 2. नये कर्म-बंध को कैसे संवरित कर सकता है या रोक सकता है ?
तार्किक रूप से, मानव की अपने निम्न स्तर के स्वभाव की दासता उसके साथ बंधे हुए कर्म-पुद्गलों का प्रभाव ही मानना चाहिये क्योंकि यह दासता ही आत्मा के पूर्ण सामर्थ्य की अभिव्यक्ति को अवरुद्ध करती है। व्यक्तिगत कर्मों के आस्रव व बंध को रोकने के लिये केवल तपस्या या संयम
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org