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जैन धर्म की वैज्ञानिक आधारशिला तीव्रता केवल एक-एक यूनिट है, तो इनमें संयोग नहीं होगा। साथ ही, यदि दो चरम कणों की आर्द्रता की तीव्रतायें X और Y हों, तो उनके संयोग के लिये,
|x-Y/52, X=2.........;Y-2.............. यही नियम विभिन्न शुष्कता की तीव्रता के दो चरम कणों के संयोग पर भी लागू होता है। ऐसे दो चरम कणों के संयोग के लिये, कोई प्रतिबन्ध नहीं है जिनमें एक में X इकाई आर्द्रता हो और दूसरे में Y इकाई शुष्कता हो, यदि उनमें x>1 और Y>11 (यह सिद्धान्त कण-भौतिकी के पाउली-अपवर्जन नियम से पर्याप्त मात्रा में समानता प्रदर्शित करता है)।
जैनों की कण-भौतिकी में 200 से अधिक प्रकार के प्राथमिक चरम कण होते हैं, पर उनमें उपरोक्त में से प्रत्येक गुण की तीव्रता या प्रबलता एक से अनन्त यूनिटों तक परिवर्ती होती है। इन्हें सरलता से दो मूलभूत वर्गों में विभेदित किया जा सकता है : 1. कार्यभूत चरम कण 2. कारणभूत चरण कण। इस प्रकार इन दोनो प्रकार के चरम कणों से पूरा विश्व निर्मित होता है।
यहां यह ध्यान में रखना चाहिये कि चरम कणों के गुणों में मृदुता/कठिनता एवं लघुता/गुरुता के गुण अपवर्जित किये गये हैं, क्योंकि ये सघन (भार-युक्त)चरम कणों या उनके संयोगों के गुण हैं। (कार्मन-कण, चरम कणों से निर्मित सूक्ष्मतम कण हैं, इसलिये वे केवल दो चरम कणों के संयुक्त रूप भी हो सकते हैं।) 4.6 जीवन-चक्रों का व्यावहारिक निहतार्थ
यह बिल्कुल स्पष्ट है कि हमारी जीवन-धुरी पर (अध्याय 2 देखिये) दूसरे पुनर्जन्म की कोटि के निर्माण में, कर्म-पुद्गल केन्द्रीय योगदान करते हैं। फलतः, एक अपराधी मनुष्य दूसरे जन्म में सांप भी हो सकता है, क्योंकि अपराध वृत्ति में भारी कर्म-पुद्गल होते हैं (देखिये, चित्र 4.4)। दूसरी ओर, एक सामान्य मनुष्य भारी कर्म-पुद्गलों के लिये प्रायश्चित्त करके आध्यात्मिक श्रेणी की उच्चतर कोटि प्राप्त कर सकता है। अर्थात् वह ऐसे कार्मिक घनत्व के साथ पुनर्जन्म ले सकता है जो उपाध्याय पद के अनुरूप हो। इस प्रकार, यह जीवन चक्र चलता रहता है। उदाहरणार्थ, कोई जीव सर्प के रूप में उत्पन्न हुआ, वह अपने कार्मिक घनत्व को कम कर अपने दूसरे जीवन चक्र में मनुष्य के रूप में उच्चतर कोटि का जीवन प्राप्त कर सकता है (चित्र 4. 4 देखिये)। सांप के लिये यह संभव है कि वह अपने भारी कर्म-पदगलों का निर्झरण कर सके। इसके लिये महावीर के जीवन में चंडकौशिक की पौराणिक कथा देखिये, (परिशिष्ट 1)।
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