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कार्मन कणों का सीमांत अवशोषण
लेकिन इस प्रक्रिया में प्रत्येक समय पर सावधानी बरतने की बात प्रमुखता से महत्त्वपूर्ण है। हम इस अनुरूपता के विषय में अध्याय 8 में और भी विवेचना करेंगे।
चित्र 6.2 में उन विविध परिस्थितियों को प्रदर्शित किया गया है। जिनमें हम मन, वचन और काय से हिंसा और अहिंसा की अभिव्यक्ति करते हैं। यहां यह ध्यान दीजिये कि यहां चित्र 6.2 ( अ ) हत्या को निरूपित करता है, चित्र 6.2 (ब) करुणा को चित्र 6.2 ( स ) चरम वाचालता को और चित्र 6.2 (द) मैत्री को अभिव्यक्त करता है। चित्र 6.2 (य) में व्यक्ति किसी शत्रु के साथ लड़ने की सोच रहा है और चित्र 6.2 ( २ ) में व्यक्ति किसी को (उदाहरणार्थ, शराबी को ) समताभाव पूर्वक सहायता करने की बात सोच रहा है।
6.3 हिंसा का भाव-पक्ष
पूर्व - विवेचन में हमने इस बात का उल्लेख किया है कि हमारे विचार और कार्य हमारे साथ संलगित होने वाले पुण्य या पाप कर्मों के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । फलतः, हमें ऐसी क्रियायें नहीं करनी चाहिये जिनमें 'पूर्व-विचारित ( संकल्पित या संकल्पी) हिंसा समाहित हो । इसके विपर्यास में, हमें ऐसी क्रियाओं पर भी ध्यान देना चाहिये जो 'आरंभी या उद्योगी हिंसा (घरेलू या आजीविका संबंधी हिंसा) का रूप लेती हैं। इस आधार पर जटिल शल्यक्रिया के समय रोगी की मृत्यु हो जाने पर भी डाक्टर को, हत्यारे की तुलना में बहुत कम कर्म-बन्ध होता है। इसके अतिरिक्त, डाक्टर केवल लघु या पुण्यमय कर्म- पुद्गलों को ही संचित करता है (यदि वह अयोग्य न हो), जबकि हत्यारा सदैव सर्वाधिक पाप कर्मों का बन्ध करता हैं। खेती करने वाला किसान खेती करते समय केवल अनिच्छा से ही मिट्टी में विद्यमान (सूक्ष्म या स्थूल) कीड़ों को मारता है, लेकिन वह मंद पाप कर्म के पुद्गलों को ही अर्जित करता है । तथापि, कीटमार और मारक कीटमार पदार्थों से खेती में अनन्त जीवों की हत्या होती है । फलतः सामान्य रूप से, अहिंसा की धारणा हमें उन व्यवसायों तक सीमित कर देती हैं जिनमें 10 जीवन इकाइयों से ऊपर के जीवों की संकल्पित हिंसा समाहित न हो। सीमांत या चरम दशाओं में आत्मरक्षा तक के लिये की जाने वाली हिंसा (रक्षक या विरोधी हिंसा) भी पाप कर्मों को ही अर्जित कराती है। इस प्रकार, हिंसा के चार रूप होते है : 1. आरम्भी, 2. उद्योगी (व्यवसाय), 3. रक्षक और विरोधी, और 4. संकल्पी । इनमें संकल्पी हिंसा सर्वाधिक पाप-कर्म अर्जित कराती है। अधिकांश व्यक्तियों के लिये इस प्रकार के कठोर हिसंक व्यवहारों की आवश्यकता नहीं होती। इस सम्बन्ध में महात्मा गांधी द्वारा रायचंद्र भाई को लिखा गया प्रसिद्ध पत्र और उसका
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