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जैन धर्म की वैज्ञानिक आधारशिला प्रक्रियाओं से किस प्रकार साम्य रखती हैं। यहाँ चित्र 5.2 विशेषतः चित्र 2.1 का व्यावहारिक निदर्शन है।
यहां यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि यहां क्रोध और मान को 'द्वेष-समूह' में रखा गया है जबकि माया और लोभ को 'राग-समूह' में रखा गया है, क्योकि ये कषायें अनुरूपी भावनात्मक दशाओं को प्रतिबिम्बित करती हैं। 5.4 कषायों की तरतमता या कोटि
अब हम चार प्रमुख कषायों - क्रोध, मान, माया ओर लोभ की प्रबलता की सोदाहरण व्याख्या करेंगे और इन्हें हम 0,1,2,3,4 की पांच कोटियों के रूप में व्यक्त करेंगे। वस्तुतः ये कोटियां कर्मबन्ध के घनत्व के अनुपात में होती हैं,
कर्म-बन्ध का घनत्व ६ कषायों की कोटि अर्थात कषायों की कोटि जितनी ही उच्च होगी, कर्म-बन्ध भी उतना ही वृहत्तर होगा। इसके वियोजन का समय भी उतना ही अधिक होगा और कर्म-बल भी उतना ही प्रबलतर होगा।
क्रोध, मान, माया और लोभ की 0,1,2,3 व 4 की कोटियों को निम्न उपमाओं द्वारा निदर्शित किया जा सकता है (देखिये, स्टीवेंसन, 1915 पेज 124) 1. क्रोध कषाय : क्रोध के प्रकरण में उसकी कोटि 1 पानी पर लकड़ी से
खींची गई रेखा के समान होती है जो तत्काल मिट जाती है। इसकी कोटि 2 समुद्र के किनारे की रेत पर खींची गई रेखा के समान होती है जो समुद्री ज्वार-भाटा से मिट जाती है। इसकी कोटि 3 रेतीली जमीन पर बनाई गई खाई के समान होती है जो एक वर्ष की रितु के बाद बरसात में स्वयं ही मिट जाती है। इसकी कोटि 4 सबसे निकृष्टतम होती है और यह पहाड़ पर उत्पन्न गहन दरार के समान होती है जो अनन्त काल तक रहती है। क्रोध की शून्य कोटि का अर्थ है - सहिष्णुता और शांति।
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