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कर्मों का व्यावहारिक बंध
। प्रत्येक घटक का अनुरूपी स्थितिज बल, f और वियोजन-समय, t कषायों की तरतमता पर निर्भर करता है जिसके आधार पर कोई क्रिया की जाती है। एक बार कार्मनों का प्रभाव व्यक्त होने पर यह जीव/आत्मा से निसर्जित हो जाता है और पुनः अपनी अविभेदित अवस्था में आ जाता है
और, इस प्रकार वह मुक्त कार्मन-कणों के अनन्त भंडार में समाहित हो जाता है।
यहां यह ध्यान में रखना चाहिये कि सक्रियण का समय, निसर्जन की स्थिति और प्रत्येक कार्मिक घटक की प्रबलता भिन्न-भिन्न भी हो सकती है। साथ ही, यह भी संभव है कि कार्मनों का समय-पूर्व वियोजन (उदीरण) और उनके प्रभावों का दमन आदि भी कुछ विशेष साधनों के माध्यम से संभव हो जाता है (अध्याय 7 देखिये)।
कषाय कर्म-बंध का मुख्य कारक है। इसके चार भेद हैं : क्रोध, मान, माया और लोभ। इन चार कषायों को हम मुख्य कषाय कहेंगें। इन्हें चित्र 5.1 में निदर्शित किया गया है। यहां यह ध्यान में रखना चाहिये कि लालसा और संग्रह या खान-पान की अधिकता की प्रवृत्ति- दोनों ही लोभ के रूप हैं। लोभ एवं माया के कारण कार्मन-कणों का आर्कषण बहुत प्रबल होता है। इसके विपर्यास में क्रोध और मान के कारण इनका आकर्षण दुर्बल होता है। ये दोनों कषायें एक साथ भी हो सकती हैं। किसी भी विशिष्ट स्थिति में, शरीर, वचन और मन की क्रियायें (देखिये चित्र 5.2 अ) कर्म-क्षेत्र को सक्रिय बनाती हैं। इससे नये कार्मन संकलित होने लगते हैं और वे चारों कषायों की तरतमता के कारण आकर्षित और विकर्षित होते हैं (देखिये चित्र 5.2 अ)। नये कार्मन कण जीव के साथ विद्यमान कर्म-पुद्गलों के साथ
आत्मा के ऊर्जा-घटक की सहायता से बन्धन की प्रक्रिया से पार होते हैं जिससे कषायें रेखित हो जाती हैं। (देखिये, चित्र 5.2 ब)। यह विद्यमान कर्म-पुदगलों की दृष्टि से व्यक्तिगत क्रिया है। इसके बाद उत्तरवर्ती भावात्मक क्रियाओं के कारण उनके विभिन्न कार्य निश्चित किये जाते हैं। इसका अर्थ यह है कि अच्छे कामों से पुण्य कर्म का संयोजन होगा, जबकि बुरे कामों से पाप कर्मों का संयोग होगा (देखिये चित्र 5.2 ब)। फलतः अंत में क्रमशः दुर्बल या प्रबल कर्म-बन्ध होगा। यहां यह ध्यान दीजिये कि व्यवहार में ये कर्म-बन्ध की प्रक्रियायें अध्याय 2 में वर्णित भावात्मक
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