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अध्याय 6 कार्मन-कणों का सीमांत या चरम अवशोषण
(स्वतःसिद्ध अवधारणा 4 ब) अपने प्रति अथवा अन्य के प्रति की जाने वाली हिंसा नये अतिभारी पापमय कर्म-पुद्गलों का बन्ध करती है। इसके विपर्यास में, जीवों के प्रति सकारात्मक अहिंसक वृत्ति के साथ मोक्षमार्ग पर जाने की क्रियाओं में सहायक होना नये लघुतर पुण्यमय कर्म-पुद्गलों का बन्ध है। 6.1 स्वतःसिद्ध अवधारणा 4 ब
पूर्ववर्ती अध्याय 5 में हमने यह ज्ञात किया है कि वे कौन से कारक हैं जिनसे कर्म-प्रवाह संभव होता है। अध्याय 5 में हमने यह भी बताया है कि सकारात्मक क्रियाओं (योग) से बन्धनीय कार्मन-कण लघुतर या पुण्यमय कर्म-पुद्गलों में परिवर्तित होते हैं और नकारात्मक क्रियाओं (योग) से वे भारी या पापमय कर्म-पुदगलों के रूप में परिवर्तित होते हैं। इसके विपर्यास में, पुण्यमय कर्म-पुद्गलों के उदय से अच्छा फल मिलता है और भारी या पापमय कर्म-पुद्गलों के बन्धोत्तर उदय से बुरे फल मिलते हैं। इसका अर्थ यह है कि पुण्यमय कर्म-पुद्गल आध्यात्मिक प्रगति के लिये अच्छा वातावरण प्रदान करते हैं और पापमय कर्म-पुदगल भावी जीवन-चक्रों में जीवन को निम्न स्तरों की ओर ले जाते हैं।
यहां यह प्रश्न उठता है कि प्राणी पुण्यमय (लघुतर) या पापमय (गुरुतर) कर्म-पुद्गलों को कैसे एकत्रित करता है ? बन्ध के इन दो सीमान्तों की ओर ले जाने वाली क्रियायें क्रमशः हिंसा और अहिंसा के रूप में होती हैं (चित्र 6.1)। यहां हिंसा शब्द का उपयोग व्यापक अर्थ में किया गया है। व्यक्ति मन, वचन और काय की भावात्मक क्रियाओं से स्वयं (कृत) या दूसरों को हिंसा करने के लिये प्रेरित करता है (कारित), या फिर दूसरों के द्वारा की गई हिंसा का अनुमोदन करता है (अनुमोदित)। इस प्रकार, वह तीन प्रकार से - कृत, कारित या अनुमोदित हिंसा करता है। इसके साथ ही, हिंसा शब्द से ही ऐसी क्रिया का संकेत मिलता है जो दूसरों के लिये (या स्वयं के लिये) पीड़ा या दुःख उत्पन्न करे या कषायों को तीव्र करे। वस्तुतः, यह शब्द 'प्राण लेने' के अर्थ को भी समाहित करता है। यह क्रिया न केवल दूसरों को दुःख पहुंचाने के लिये भर्त्सनीय है, अपितु कषायों की
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