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जैन धर्म की वैज्ञानिक आधारशिला
टिप्पणियां 1. पी. एस. जैनी, पेज 112
__ "आत्मिक ऊर्जा का गुण राग-द्वेषात्मक अशुद्धियों के कारण दिग्भ्रमित हो जाता है, और आत्मा में कम्पन उत्पन्न करता है (योग)। इससे आत्मा में विभिन्न भौतिक कर्मों का आस्रव होता है। वास्तव में, यहां कम्पन का अर्थ व्यक्ति की भावात्मक क्रियायें है। ये क्रियायें मन, वचन या काय के माध्यम से अभिव्यक्त होती हैं। सारणी 5.1 में विभिन्न कार्मिक घटकों में कार्मन-कणों की संख्या X1, X2 ..... X8 के रूप में व्यक्त की गई हैं। इसके अनुरूप X1, X2 ..... X8 के वियोजन के समय अंतराल (t(1, th(2)).... (ts(1) tg(2)) हैं। इस प्रकार कार्मिक घटक 'अ' के लिये वियोजन समय समय से प्रारंभ होता है और th-समय पर समाप्त होता है। इसी प्रकार, अन्य घटकों के विषय में भी समझना चाहिये। वियोजित होने वाले कार्मिक घटकों की तीव्रतायें क्रमश: f ..... f8 हैं। यहां यह समझा जाता है कि वियोजन प्रक्रम प्रत्येक घटक के लिये एक समान
स्थिर होता है। लेकिन यह विभिन्न घटकों में परिवर्ती भी हो सकता है। 2. पी. एस. जैनी, पेज 113
__ "किसी भी क्रिया के बाद आत्मा के प्रति आकृष्ट होने वाले कर्मों के प्रदेशों का वास्तविक परिमाण उन भावों की कोटि पर निर्भर करता है जिनके कारण क्रिया की जाती है। इसके अतिरिक्त क्रिया की प्रकृति का स्वरूप कर्म की प्रकृति को निर्धारित करता है जो इसके पूर्व अविभेदित मानी जाती है। इन विभिन्न कर्मों की स्थिति एवं प्रबलता अर्थात् ये कितने समय तक आत्मा के साथ बंधे रहेंगे और आत्मा पर इनका किस प्रकार का वास्तविक प्रभाव पड़ेगा, इस बात पर निर्भर करती है कि क्रिया करते समय क्रोध या लोभ आदि कषायों की कोटि क्या थी। एक बार कर्म ने जब अपना प्रभाव दिखा दिया (उदय में आया), यह पके फल के समान आत्मा से निर्झरित हो जाता है
और अपनी अविभेदित अवस्था को पुनः प्राप्त कर लेता है और इस प्रकार यह पुनः लोक-व्यापी कर्म पुद्गलों के अनंत-संचय का अंश बन जाता है।"
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