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जैन धर्म की वैज्ञानिक आधारशिला
अजीव के भी विशिष्ट गुण होते हैं - निर्जीवता ( अचेतनता), स्पर्श, रस, गंध, वर्ण। यहां 'जीव' का अर्थ शुद्ध आत्मा माना गया है क्योंकि उसके सभी लक्षण इंद्रिय - ग्राह्य नहीं होते हैं । (देखिये सारणी 4. 3)
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यहां महत्त्वपूर्ण सिद्धांत यह है कि मौलिक कणों के द्वारा उत्पादित प्रत्येक गुण में अपने असंततता के गुण की अपेक्षा सदैव परिवर्तन होता रहता है । इस आधार पर पदार्थ और ऊर्जा दोनों को एक एवं एकरूप ही माना जा सकता है। इसका अर्थ यह है कि ध्वनि, प्रकाश और ऊष्मा आदि पुद्गल हैं लेकिन उनकी पर्याय ऊर्जात्मक है। जैनों की पदार्थ और ऊर्जा सम्बन्धी ये धारणायें आधुनिक भौतिकी की समस्त धारणाओं को समाहित नहीं करतीं, लेकिन ये उनसे संगत अवश्य हैं (अध्याय 10 देखिये) । इसके विपर्यास में, दूसरी ओर जैन विज्ञान 'पदार्थ पर मन के प्रभाव से सम्बन्धित घटनाओं की अच्छी व्याख्या करता है। यह बताता है कि कार्मन - कणों से निर्मित सूक्ष्म कर्म - पुद्गल और आत्मा किस प्रकार एक-दूसरे से सम्बन्धित हैं?
सारणी 4.3 जीव और अजीव के लक्षण
जीव 1. चैतन्य
(ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य )
2. ज्ञान 3. दर्शन
4. सुख 5. वीर्य
6. अमूर्त
अजीव
1. अचैतन्य
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2. स्पर्श
3. रस
4. गंध
5. वर्ण या रूप
6. मूर्त / अमूर्त
आत्मा (या जीव) : इस लोकाकाश में अनन्त आत्मायें पाई जाती हैं। प्रत्येक आत्मा में अगणित संख्या में आकाश-प्रदेश पाये जाते हैं, लेकिन ये वर्तमान शरीर की आकृति की भौतिक सीमा में ही रहते हैं। इसके विपर्यास में, मुक्त आत्मायें विशिष्ट होती हैं और वे काल, धर्मद्रव्य और अधर्म द्रव्य के बंधनों से मुक्त हैं। वे लोकाकाश और अलोकाकाश के बीच की सीमा के उच्चतम बिन्दु पर स्थित रहती हैं। इस सीमा का उच्चतम बिन्दु, संभवतः कृष्ण - विवर (Black hole) के समान है। यह मान्यता इस आधार पर है कि कृष्ण -- विवर पर भौतिकी के मानक नियम लागू नहीं होते। जब सभी कर्म - पुद्गल यहां तक कि सूक्ष्मतम कर्म - पुद्गल आत्मा से वियोजित हो जाते हैं, तब वह इस
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