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अध्याय 5 कर्मों का व्यावहारिक बन्ध
(स्वतःसिद्ध अवधारणा 4 अ) स्वतःसिद्ध अवधारणा 4 अ : कर्म का बन्ध मिथ्यात्व, अविरति या असंयम, प्रमाद, कषाय और योग के कारण होता है। 5.1. स्वतःसिद्ध अवधारणा
पिछले अध्यायों के विवरण से हम यह जानते हैं कि कर्म-पुद्गलों के घनत्व से विभिन्न जीव/जातियों में अंतर होता है। साथ ही, मनुष्य--स्तर पर यह घनत्व कम होता है। तथापि, आत्मा की सम्पूर्ण क्षमता का साक्षात्कार करने के लिये यह महत्त्वपूर्ण है कि कर्म-पुद्गलों को उससे पूर्णतः वियोजित किया जाय। इसके पूर्व कि हम यह जानकारी करें कि यह लक्ष्य कैसे प्राप्त होता है, यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि कर्मों का बन्ध, व्यावहारिक दृष्टि से, कैसे होता है ?
फलतः अब हम अध्याय 2.4 में विकसित उन भावात्मक चर्चाओं से सम्बन्धित व्यावहारिक पक्ष प्रस्तुत करने का प्रयत्न करेंगे। मन, वचन और काय की क्रियाओं, या संक्षेप में जैन योग के कारण आत्मा के चारों ओर कर्म बल-क्षेत्र उत्पन्न होता है, जबकि व्यक्ति की भावात्मक क्रियाओं के कारण अर्थात् अपनी इच्छाओं के कारण कर्म का बन्ध होता है। यहां यह ध्यान में रखना चाहिये कि कोई भी क्रिया, स्वयं न तो कर्म-बल क्षेत्र बना सकती है और न ही कार्मन-कणों को आकर्षित कर सकती है। यह उसी प्रकार समझना चाहिये जैसे किसी भी नवजात शिशु में सही या गलत काम करने की कोई भावना नहीं होती। लेकिन जब ये भावात्मक क्रियायें की जाती हैं, तब कार्मन-कण आकर्षित होते हैं और कर्म-बन्ध हो जाता है।'
आत्मा + मन, वचन, काय की क्रियायें → कार्मन कण आर्कषण → कर्म-बन्ध
इस कर्म-बन्ध के लिये स्वतःसिद्ध अवधारणा 4 अ मे पांच कारण या कारक दिये गये हैं :
मिथ्यात्व या मिथ्यादर्शन (विपरीत दृष्टिकोण) अविरति या असंयम प्रमाद कषाय और
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