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जैन और जैनधर्म
स्वतःसिद्ध अवधारणा-3 : कर्म बंधन आत्मा को जीवन के अस्तित्व की विभिन्न अवस्थाओं के चक्र में आबद्ध करता है।
स्वतःसिद्ध अवधारणा-4 अ : कर्म का बंध मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग के कारण होता है।
स्वतःसिद्ध अवधारणा-4 ब : अपने प्रति अथवा अन्य के प्रति की जानेवाली हिंसा नये अतिभारी पापमय कर्म-पुद्गलों का बंध करती है। इसके विपर्यास में, जीवों को सकारात्मक अहिंसकवृत्ति के साथ मोक्षमार्ग पर जाने की क्रियाओं में सहायक होना नये लघु-तर पुण्यमय कर्म-पुद्गलों का बंध करता है।
स्वतःसिद्ध अवधारणा-4 स : तप का अभ्यास न केवल नये कार्मन कणों या कर्म-पुद्गलों के आस्रव के लिये कार्मिक-सुरक्षा कवच बनाता है, अपितु यह पूर्वार्जित कर्म-पुद्गलों की निर्जरण प्रक्रिया में भी योगदान करता है।
ये चारों स्वतःसिद्ध अवधारणायें जैनधर्म रूपी वृक्ष की जड़ें हैं, शाखायें नहीं। जैन आगमों के परिप्रेक्ष्य में इन अवधारणाओं के अर्थ और उनकी तर्कसंगतता की विवेचना आगे के अध्यायों में की गई है। स्वतःसिद्ध अवधारणायें 1-3 जैनों के कार्मन कणों (या कर्म-पुदगलों) के वैज्ञानिक सिद्धान्त को प्रस्तावित करती हैं और स्वतःसिद्ध अवधारणायें 4अ, 4ब और 4स इस सिद्धांत के अनुप्रयोग निदर्शित करती हैं।
1.4 पारिभाषिक शब्दावली
तीर्थंकर ऋषभ
: पार्श्व महावीर उमास्वाति (मि) : तत्त्वार्थसूत्र :
धर्म-प्रवर्तक अर्हत् प्रथम तीर्थंकर तेईसवें तीर्थंकर चौबीसवें तीर्थंकर जैनों के एक प्रमुख आचार्य जैनों की एक सर्वमान्य प्रामाणिक पवित्र पुस्तक
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