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जैन धर्म की वैज्ञानिक आधारशिला
समान हैं जो मछलियों के गमन में सहायक होता है और अधर्म द्रव्य पेड़ की छाया के समान है जो थके हुए यात्री के विश्राम में सहायक होता है। इस प्रकार आत्मा (जीव) और पदार्थ में 'गमन' और 'स्थिति के सामान्य गुण होते हैं, लेकिन ये दोनो द्रव्य इनकी क्रियाओं के परिचालन को संभव बनाते हैं। सामान्यतः गमन क्रिया में, विकास, अन्योन्यक्रिया, गति आदि समाहित होते हैं जबकि स्थिति-क्रियायें इसके विपरीत होती हैं।
उपरोक्त दोंनो माध्यम (द्रव्य) परमाणु-रूप नहीं होते, वे अक्रिय, अमूर्त (आकृति-रहित) और संतत होते हैं। ये दोनों सहवर्ती होते हैं और हम इन दोनों माध्यमों को क्रमशः द्वितीयक और तृतीयक आकाश-क्षेत्र कह सकते हैं। इन दोनों माध्यमों के विषय में बाशम (1958, पेज 76) ने अच्छा तर्कसंगत विवेचन किया है जिसे संक्षेप में नीचे दिया जा रहा है। यहां हमने उनके उद्धरण में अपनी पारिभाषिक शब्दावली का उपयोग किया है :
"द्वितीयक आकाश के रूप में धर्मद्रव्य का अस्तित्व जीव और पदार्थों के गमन-स्वभाव के तथ्य से (जैनों के लिये संतोषजनक समाधान के रूप में) सिद्ध होता है। इस गमन क्रिया के लिये कोई कारक होना चाहिये। यह न तो काल हो सकता है और न ही परमाणु हो सकतें हैं, क्योंकि इनमें क्षेत्रीय विस्तार नहीं होता और जो विस्तार से रहित है, वह विस्तारवाले आकाश में पदार्थों के गमन में कारण नहीं हो सकता। यह गतिक्रिया आत्मा के कारण भी नहीं हो सकती, क्योंकि आत्मायें संपूर्ण विश्व में व्याप्त नहीं होतीं। लेकिन गति की संभावना तो सर्वत्र होती है। यह गतिक्रिया आकाश द्रव्य के कारण भी नहीं हो सकती, क्योंकि यह तो अलोकाकाश के रूप में लोकाकाश की सीमा से बाहर भी रहता है। यदि गतिक्रिया का आधार आकाश को माना जाये, तो विश्व/लोक की सीमायें परिवर्ती होंगी। यह संभव नहीं है। लोकाकाश की सीमा स्थिर है। फलतः, गतिक्रिया किसी अतिरिक्त द्रव्य के कारण ही होनी चाहिये जो लोकाकाश के बाहर नहीं पाया जाता पर उसमें सर्वत्र व्याप्त रहता है। इस द्रव्य को ही 'धर्म द्रव्य या गति माध्यम' कहते हैं। इसी प्रकार के समरूप तर्कों के आधार पर अधर्म द्रव्य का अस्तित्व भी प्रमाणित किया जाता है।"
उपरोक्त छह द्रव्यों में से पहले चार द्रव्यों- जीव (आत्मा), पुद्गल, आकाश और काल- में इन दोनों माध्यमों के कारण कोई परिवर्तन नहीं होता, लेकिन वे तभी कार्यकारी होते हैं जब जीव और पुद्गल या तो आकाश में 'गति-पर्याय' में रहें या "स्थिति–पर्याय' में रहें। इस प्रकार, गति-माध्यम (धर्मद्रव्य) विशेषतः कर्म-बल या कर्म-विदलन में उदासीन सहायक होता है जबकि स्थिति माध्यम (अधर्म द्रव्य) कर्म-बंध की अवस्था में सहायक होता है। इसके साथ ही धर्म द्रव्य आत्मा द्वारा एक अस्तित्व
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