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जन्म-मरण के चक्र
4.4. छह द्रव्य
अब हम प्रकृति की व्याख्या के लिये उन जैन नियमों पर विचार करेंगे जो आत्मा और कार्मन - कणों की अन्योन्यक्रिया, नवीन जीवन का ग्रहण, आत्मा की मुक्ति आदि विभिन्न घटनाओं की क्रियाविधि पर प्रकाश डालते हैं । जैन विज्ञान के अनुसार, इस विश्व में छह 'द्रव्य' हैं जिनके नाम निम्न हैं:
1. आत्मा ( या जीव)
2. पुद्गल ( पदार्थ और ऊर्जा )
3. आकाश
4. काल
5. गति माध्यम ( धर्म द्रव्य)
6. स्थिति माध्यम (अधर्म द्रव्य)
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वर्तमान भौतकी में पदार्थ का वर्णन काल और क्षेत्र (आकाश) के आयामों के आधार पर किया जाता है। इसके विपर्यास में, जैन विज्ञान में, आत्मा को ही काल, क्षेत्र एवं पदार्थ के आयामों के आधार पर वर्णित किया जाता है। उपरोक्त सभी द्रव्यों को हम 'पदार्थ' (Substances, Realities) कह सकते हैं । इस आधार पर उनके वर्णन में सहायता मिलेगी ।
आकाश या क्षेत्र : जैन मत में आकाश को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया है । इनमें प्रथम श्रेणी वह है जहां अन्य पांच द्रव्य ( तथा स्वयं भी ) पाये जाते हैं। दूसरी श्रेणी वह है जो रिक्त है अर्थात् जहां उपरोक्त पांच द्रव्य नहीं पाये जाते। हम इन्हें क्रमशः अधिष्ठित और अनधिष्ठित आकाश (लोकाकाश, अलोकाकाश) कहेंगे। अधिष्ठित आकाश अभिव्यक्त विश्व के समकक्ष है जहां अन्य पांचों द्रव्य पाये जाते हैं। इस अधिष्ठित आकाश का सहज गुण यह है कि इसमें अन्य पांचों द्रव्यों को स्थान देने की क्षमता है और इसे अनंत अति - सूक्ष्म प्रदेशों में विभाजित किया जा सकता है। इन अति सूक्ष्म प्रदेशों में विस्तार तो है, पर इन्हें पुनर्विभाजित नहीं किया जा सकता है। इस संकेतन में यह धारणा निहित है कि अधिष्ठित आकाश की सीमायें हैं। इसके साथ ही, जैसा हम आगे देखेंगे कि अधिष्ठित आकाश और अनधिष्ठित आकाश की सीमा भी बहुत महत्त्वपूर्ण है ।
धर्म और अधर्म द्रव्य (गति - माध्यम और स्थिति-माध्यम ) : गति माध्यम (धर्म द्रव्य) आत्मा और पदार्थ में तथा उनके मध्य होने वाली अन्योन्यक्रिया एवं गति में सहायक होता है। इसके विपर्यास में, स्थिति माध्यम आत्मा और पदार्थ में या उनके मध्य संतुलन या स्थायित्व बनाये रखने में सहायक होता है । इनके विषय में सामान्य उपमा यह दी जाती है कि धर्म द्रव्य जल के
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