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जैन धर्म की वैज्ञानिक आधारशिला
ये चारों घटक ( अ, ब, स, द) प्रतिसमय कार्यकारी रहते हैं और इन्हें किसी एक जीवन-चक्र में घातिया या विनाशक घटक के रूप में माना जाता हैं। हम इन घटकों को 'प्राथमिक घटक' कहेंगे ।
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इनके अतिरिक्त, अन्य चार घटकों को 'द्वितीयक घटक' कहते हैं जो दूसरे जीवन की ओर ले जाते हैं और परोक्षतः स्वतंत्रताकांक्षी प्रेरक को भी प्रभावित करते हैं । इन घटकों के नाम निम्न हैं:
घटक
1. सुख - दुःख अनुभूति - उत्पादक घटक 2. शरीर - निर्माणक घटक
3. आयु - निर्धारक घटक
4. पर्यावरण - निर्धारक घटक
हम इन घटकों को क्रमशः 'य, र, ल, और व घटक के रूप में संसूचित करेंगे। ये घटक, दूसरे जीवन चक्र के प्रारंभ होने के ठीक पहले के समय को छोड़कर अन्य समय पर कर्म-बंध और कर्म-क्षय की प्रक्रिया में मंथर गति से काम करते हैं । सारणी 4.1 में इन कार्मिक घटकों का संक्षेपण किया गया है।
नाम
(य) वेदनीय कर्म (र) नामकर्म (ल) आयुकर्म (व) गोत्रकर्म
यद्यपि उपरोक्त सभी कार्मिक घटक स्वतंत्र रूप से काम करते हैं, फिर भी इनकी क्रिया में विकारी घटक अ (मोहनीय कर्म) का केन्द्रीय महत्त्व है, क्योंकि यह न केवल आत्मा को विकृत करता है, अपितु यह अन्य घटकों के परिचालन में भी सहयोगी होता है। वस्तुतः, कार्मिक घटक ब (अंतराय कर्म) उस विकृति कारक प्रक्रिया के अस्तित्व से प्रभावित होता है। चित्र 4.1 इस अन्योन्यक्रिया के स्थितिक पक्ष को निर्धारित करता है। चित्र 4.2 में इन घटकों का आत्मा पर होने वाले अनुक्रमिक प्रभाव को प्रदर्शित करता है जिससे बाहरी आयताकार आकृतियों में ये कार्मिक घटक, भीतरी आयतों की अपेक्षा, प्रत्येक समय पर अधिक क्रियाशील होते हैं। दूसरे शब्दों में अ - घटक, अ1⁄2-घटक ब-घटक से अधिक क्रियाशील होते हैं एवं ब-घटक स-घटक से और स-घटक द-घटक से अधिक क्रियाशील होता है। इसके विपर्यास में य, र, ल, व घटक (चारों अघातिया कर्म) मंथर गति से परिचालन करतें हैं ( हम इन कार्मिक ऊर्जा - स्तरों की परमाणु के विभिन्न भीतरी और बाहरी कक्षों में विद्यमान इलेक्ट्रानों के ऊर्जा स्तरों से तुलना कर सकते हैं।
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