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जन्म-मरण के चक्र
मुक्ति की
इच्छा
सुख
वीर्य
ज्ञान
दर्शन
आत्मा
चित्र 4.1 कार्मिक घटकों के साथ किसी समय नियत बिंदु पर आत्मा की अवस्था और कर्म - पुद्गलों पर उसका प्रभाव
1. दर्शन -विकारी उपघटक 2. चारित्र - विकारी उपघटक
विकृत
अवरोधित
आवरित
आच्छादित
आत्मा के सकारात्मक बलों में अनन्त सुख, वीर्य, ज्ञान और दर्शन आते हैं। इन घटकों के मूल में एक प्रबल ( कर्म - मुक्ति के लिये) स्वतंत्रताकांक्षी प्रेरक है। आत्मा के नकारात्मक बलों में, अनन्त सुख के अनुरूप एक घटक है जो इसको विकृत या संदूषित करता है। इस घटक को हम सुख-विकारी कर्म-घटक (मोहनीय कर्म) कहेंगे । इसे हम 'अ- घटक' कहेंगे । इस अ-घटक के दो उपघटक होते हैं:
1. ज्ञानावरण घटक (स)
2.
दर्शनावरण घटक (द)
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अ
-
शरीर
धारण
अ2
इन्हें हम क्रमशः अ, और अ1⁄2 के संकेतों से सूचित करेंगे। यहां इस बात का भी स्मरण रखना चाहिये कि विकारी घटक आत्मा के समग्र स्वरूप को परिवर्तित करते हैं अर्थात् इस प्रक्रिया में इसके घटकों में मूलभूत परिवर्तन हो जाता है जैसे उन्माद की दशा में सारा व्यक्तित्व ही परिवर्तित हो जाता है।
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इसी प्रकार, एक दूसरा निषेधात्मक घटक भी है जिसे हम वीर्य या ऊर्जा-बाधक कर्म-घटक (अंतराय कर्म) कहेंगे और इसे 'ब-घटक' से संसूचित करेंगे। यह घटक आत्मा को न केवल सीमित ऊर्जा से काम करने देता है, अपितु यह वर्तमान कर्म - पुद्गलों के समेकन या बंधन में तथा कार्मिक क्षय में सह-अपराधी होता है । इसी प्रकार, तीसरे और चौथे निषेधात्मक कार्मिक घटक भी हैं :
इन्हें हम क्रमशः 'स' और 'द' घटक के रूप में संसूचित करेंगे। यहां यह ध्यान में रखें कि ये दोनो घटक (स, द) आत्मा के दो घटकों (ज्ञान, दर्शन) को केवल आच्छादित करते हैं, वे आत्मा को विकृत नहीं करते।
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