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आत्मा एवं कर्म-पुद्गलों का सिद्धान्त
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होते हैं और वे स्वयं बंध को प्राप्त नहीं हो सकते। इसका अर्थ यह है कि कर्म-पुद्गल कार्मन-कणों के अणु या स्कंध के रूप में, केवल आत्मा से संयोजित रूप में ही जुड़ते हैं। इस प्रकार कर्म-पुद्गल नये कार्मन-कणों के अवशोषित करने पर बढ़ जाते हैं और कुछ कार्मन-कणों के आकाश में मुक्त होने से कम हो जाते हैं। 2.2.3. आत्मा और कर्म की अन्योन्यक्रिया
अपनी शुद्धतम अवस्था में, आत्मा में अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य गुण होते हैं। यह आत्मा सजीव वीर्य है, लेकिन सामान्यतः, जैसा कि स्वतःसिद्ध अवधारणा 1 से स्पष्ट है कि सशरीरी आत्मा कर्म-पुदगलों से संदूषित होती है। आत्मा और कर्म-पुदगलों के समान अत्यंत विरोधी गुण वाले दो घटकों की अन्योन्यक्रिया से अनेक प्रकार के भयंकर विकार उत्पन्न हो सकते हैं। विशेषतः ये कर्म-पुद्गल
आत्मा के ज्ञानात्मक घटक को आवृत्त करते हैं, आत्मा के दर्शनात्मक घटक को आवृत्त करते हैं, आत्मा के सुखात्मक घटक को विकृत करते हैं,
आत्मा के वीर्यात्मक घटक को प्रतिबंधित करते हैं, इस प्रकार कर्म-पुद्गलों के कारण आत्मा अपने पूर्ण गुणों की अभिव्यक्ति का लाभ नहीं ले पाता।
यहां यह ध्यान में रखना चाहिये कि केवल सुख ही आत्मा का ऐसा घटक है जो अन्य रूपों में परिणत होता है। यह परिवर्तन मदिरा या मूर्छा के प्रभाव से व्यक्ति में होने वाले परिवर्तनों के समान है। ये परिवर्तन या विकार आत्मा के वीर्यात्मक घटक को भी विकृत कर देते हैं। तथापि, कर्म-द्रव्य केवल आत्मा मे ही उत्तरजीवी होते हैं। लेकिन आत्मा तो स्वावलम्बी है और इसमें एक सहज प्रवृत्ति है कि यह कर्म द्रव्यों से (जिनमें विभिन्न शरीर-धारण भी समाहित हैं), वियोजित हो जाती है। आत्मा की इस सहज वृत्ति को हम इसकी मुक्ति की इच्छा का प्रेरक कहेंगे। 2.3 पारिभाषिक शब्दावली 2.3.1 कर्म-बंध की प्रक्रिया
यहां हम कुछ जैन पारिभाषिक शब्दों का विवरण देना चाहते हैं। आत्मा और कर्म-पुदगल के मध्य होने वाले बंध को कर्म-बंध कहते हैं। यहां यह ध्यान में रखना चाहिये कि कर्म-पुद्गल और आत्मा सहचरित या एक ही क्षेत्र में रहते हैं, लेकिन इनका आत्मा से प्रत्यक्ष सम्पर्क नहीं होता। तथापि, कार्मिक पुदगल और आत्मा के विकृत या मलिन वीर्य के संयुग्मित
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