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अध्याय 3
जीवन का अनुक्रम
( स्वतः सिद्ध अवधारणा 2)
स्वतः सिद्ध अवधारणा 2.
"संसार के प्राणी एक (दूसरे से भिन्न होते हैं) क्योंकि उनके साथ कर्म - पुद्गलों की प्रकृति एवं घनत्व परिवर्ती होते हैं।"
3. 1. स्वतः सिद्ध अवधारणा
कर्म - पुद्गल विभिन्न प्राणियों को कैसे विभाजित (वर्गभेद ) करतें हैं ? यदि हम स्वतःसिद्ध अवधारणा 2 को स्वीकार करें, तो इसके अनुसार विभिन्न जीवों में और उनकी कोटियों में अन्तर के मुख्य कारणों में से एक कारण यह है कि उनमें कार्मिक घनत्व भिन्न-भिन्न होता है। इसका अर्थ यह है कि आत्मा के मूलभूत घटक (सुख आदि) जितने ही शुद्ध होंगे, जीवन का रूप भी उतना ही उच्चतर होगा। हम कर्मों की प्रकृति के विषय में अगले अध्याय 4 में वर्णन करेंगे। वहां हम उन घटकों का निरूपण करेंगे जिनसे कर्म - पुद्गलों की विभिन्नता प्रकट होती है ।
3. 2. जीवन के यूनिट ( एकक, इकाई ) और जीवन- धुरी
आत्मा (या जीव ) की शुद्धता की कोटि को सापेक्षतः, परिमाणात्मक रूप दिया जा सकता है। सुविधा के लिये हम आत्मा की शुद्धि की कोटि को निम्न प्रकार से परिभाषित कर सकते हैं :
"आत्मा की शुद्धता की कोटि वह है जो औसत मनुष्य को जीवन के 100 जीवन - यूनिट की ओर अग्रसर करें।"
यहां 100 के अंक को अच्छी तरह समझने के लिये उसे बुद्धि-लब्धि ( I. Q. ) के समान माना जा सकता है। इस प्रकार एक सीमांत पर शुद्ध आत्मा की कोटि अनन्त जीवन - यूनिट होगी और दूसरी सीमा पर अचेतन पदार्थों की कोटि शून्य जीवन- यूनिट होगी। इस आधार पर हम आत्मा की शुद्धता को या जीवन - यूनिटों को एक सरल रेखा द्वारा निरूपित कर सकते
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