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जीवन का अनुक्रम हैं जिसमें जीवन-यूनिट के मान शून्य से अनंत तक हों। हम इस रेखा को जीवन की धुरी या अक्ष कहेंगे। यहां यह ध्यान में रखना चाहिये कि जैसे-जैसे आत्मा की शुद्धि की कोटि शून्य से अनन्त की ओर बढ़ती है, वैसे-वैसे कार्मिक घनत्व अनन्त से शून्य की ओर परिवर्ती होता है, क्योंकि कार्मिक घनत्व आत्म-शुद्धि की कोटि के व्युत्क्रम अनुपात में होता है, अर्थात्
आत्म शुद्धि की कोटि, p c 1/कार्मिक घनत्व, 1/kd
आत्मा की शुद्धि के दो मुख्य घटक माने जा सकते हैं : 1. इंद्रियों की संख्या - जो वीर्य/सुख घटक से सम्बन्धित है, और 2. बुद्धि या चेतना का स्तर - जो ज्ञान और दर्शन के घटकों से
सम्बन्धित है।
इन घटकों के विषय में अध्याय 2 में बताया जा चुका है। इस तथ्य को ध्यान में रखकर हम जीवन की धुरी को आगे के खंड 3.3 में और भी सूक्ष्मता से विभाजित करेंगे। जैन विज्ञान में ये विभाग गुणात्मक या भावात्मक रूप में सदैव माने जाते रहे हैं, लेकिन हम अब इन्हें परिमाणात्मक रूप भी दे सकते हैं। 3.3. इंद्रियों की संख्या या चेतना (बुद्धि) के आधार पर जीवन-धुरी के विभाग
सूक्ष्मतम जीवाणु जीवन के निम्नतम स्तर पर आते हैं जिनमें केवल एक ही इंद्रिय (स्पर्शन इंद्रिय) होती है। ये अति-सूक्ष्म होते हैं और केवल किसी वृहत्तर सजीव या निर्जीव तंत्र के एक घटक के रूप में विद्यमान रहते हैं। इसलिये इनमें जीवन-यूनिटों की संख्या अत्यल्प होगी। इस संख्या को हम 10* यूनिट मान लें।
जीवन का दूसरा स्तर एकेंद्रिय सूक्ष्म जीवाणुओं का समूह है जो पदार्थ के संभावित सूक्ष्मतम यूनिट को ग्रहण कर उसे अपना निवास बना लेता है। ये जीव पृथ्वी-कायिक, जल-कायिक, वायु-कायिक और अग्नि-कायिक कहलाते हैं।' हम चित्र 3.1 में इन जीवों को 5x10* जीवन यूनिटों के रूप में व्यक्त करेगें।
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