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जैन धर्म की वैज्ञानिक आधारशिला जीवन का तीसरा स्तर वृक्ष-वनस्पतियों का है, जो पूर्ववर्ती जीवों से उच्चतर कोटि के माने जाते हैं। इनका शरीर स्थूल होता है। इन्हें हम 10-3 जीवन-यूनिटों से व्यक्त करेंगे। यह बड़ी रोचक एवं ध्यान देने योग्य बात हैं कि हम पौधों में जीवन के विभिन्न रूपों को विभेदित कर सकते है। जीवन के ये सभी रूप चित्र 3.1 में बताये गये है। उदाहरणार्थ, ऐसा माना जाता है कि सेव फल की तुलना में प्याज में जीवन का अधिक सांद्रित रूप होता है। एक सेव फल के बीज से उगा वृक्ष हजारों सेव फल पैदा करता है, फलतः इसका जीवन अनेक संख्याओं में उप-विभाजित हो जाता है। इसके विपर्यास में, प्याज की एक जड़ केवल एक प्याज-कंद ही उत्पन्न करती है। फलतः हम प्याज में जीवन-यूनिटों को 10' न मानकर 10 जीवन-यूनिट मानेंगे। यह तथ्य वृक्षों पर भी लागू होता है। इसके अतिरिक्त, असंख्य जीवाणुओं द्वारा निवसित पौधों में और मृतक कलेवर में भी जीवन-यूनिटों की कोटि उच्चतर होगी।
जब इन जीवों की कोटि से कुछ कर्म पुद्गल पृथक् हो जाते हैं, तब जीवन का दूसरा उच्चतर. रूप प्रकट होता हैं जिसमें जीवों की दो इंद्रियां होती हैं - शरीर और मुख या जिह्वा। ये दो इंद्रियां हैं - स्पर्शन और रसना इंद्रिय। ये इंद्रियां सीप या शंख और शंबूक (mussel) में पाई जाती हैं। हम उन्हे जीवन के दो यूनिटों द्वारा निरूपित करेंगे।
उच्चतर जीवन के अगले चरण में तीन इंद्रियां होती हैं, जिससे इनमें नाक भी होती है अर्थात् इनमें एक अतिरिक्त घ्राण इंद्रिय (सूंघने वाली इंद्रिय) होती है जैसी कि चींटी या बिना आंख के कीड़ों में पाई जाती है। हम इन जीवों में तीन जीवन-यूनिट मानते है।
जीवों में कर्म-पुद्गलों के और भी कम हो जाने से चार इंद्रिय वाले जीव उत्पन्न होते हैं जिनमें उपरोक्त तीन इंद्रियों के अतिरिक्त आंखें या चक्षु इंद्रिय भी विकसित होती है। मक्खी और मधुमक्खी आदि इस कोटि के उदाहरण हैं। इनमें जीवन के चार यूनिट निर्धारित किये गये हैं। अन्त में, हमें कर्ण-इंद्रिय या कानवाले जीव मिलते हैं, जैसे घोड़ा, ऊंट आदि। इनमें पांच इंद्रियां होती हैं :
1. स्पर्शन 2. रसना 3. धाण 4. चक्षु और 5. कर्ण ।
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