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जैन धर्म की वैज्ञानिक आधारशिला
कारण हैं। यहां यह ध्यान में रखना चाहिये कि हम 'आत्मा' शब्द को दो अर्थों के रूप में ले रहे हैं : (1) शुद्ध आत्मा और (2) संदूषित आत्मा । लेकिन इस शब्द का अर्थ संदर्भानुसार लेना चाहिये, अर्थात्
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संदूषित आत्मा = और, शुद्ध आत्मा =
इन धारणाओं को तथा शुद्ध आत्मा और कर्म की अन्योन्यक्रिया को समझने के लिये, सर्वप्रथम हमें जैनों के सैद्धांतिक विज्ञान को समझना होगा। जैनों के अनुप्रयुक्त विज्ञान को स्वतः सिद्ध अवधारणा 4 (अध्याय 5 ) के अंतर्गत निरूपित किया जायगा ।
2. 2 जैनों की मूलभूत धारणायें
2.2.1 आत्मा
ऐसा विश्वास किया जाता है कि प्रकृति में एक ऐसा अभौतिक पदार्थ है जिसमें निम्न चार प्रमुख गुण पाये जाते हैं' :
1.
2.
3.
4.
ज्ञान
दर्शन
आनंद / सुख वीर्य या ऊर्जा
शुद्ध आत्मा + संदूषक कर्म दूषित आत्मा संदूषक कर्म
हम इन चारों गुणों को 'आत्मा के घटक' कहेंगे। इनमें से पहले के दो घटक आत्मा के 'ज्ञानात्मक' कार्य का निर्देश करते हैं और 'चेतना' के रूप हैं। सुख या आनंद एक ऐसी अवस्था है जिसमें 'करुणा' एवं 'स्वावलम्बन' के गुण समाहित होते हैं। 'वीर्य' एक अमूर्त बल है जो आत्मा के ज्ञान और दर्शन के गुणों की अभिव्यक्ति के लिये समुचित सामर्थ्य प्रदान करता है। यहाँ यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि जैनधर्म में 'आत्मा' के लिये प्रयुक्त अनेक शब्दों में एक शब्द 'जीव' भी है जो संदूषित आत्मा का सजीव घटक है।
2.2.2
कार्मन कण और कर्म पुद्गल
I
सामान्यतः कर्म-1 - पुद्गल अव - परमाणुक कर्म- कणों के बने होते हैं यहां हम इन्हें 'कार्मन कण ( Karmon Particles) कहेंगे। ये कार्मन-कण इस जगत के आकाश में यादृच्छिक और मुक्त रूप में उतराते रहते हैं, पर ये एक-दूसरे से कोई क्रिया नहीं करते (संभवतः इनमें गुरुत्वीय बल अत्यंत अल्प होता है) । विश्व के सभी अव- परमाणुक कणों में कार्मन कण अति - विशिष्ट होते हैं क्योकि वे केवल आत्मा ( या जीव) में ही अवशोषित
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