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जैन धर्म की वैज्ञानिक आधारशिला इसके अन्य प्रमुख पहलू हैं : 1. सत्यवादिता 2. चोरी न करना 3. व्यक्तिगत परिग्रह या संपत्ति की मर्यादा एवं 4. अमैथुनी भावनायें। ध्यान और सामान्य आत्म-संयम भी जैनधर्म के अंग हैं।
- जैन न तो किसी भी ऐसे बाहरी ईश्वर में विश्वास करते हैं जिसने संसार रचा हो और जो उसका पालन-पोषण करता हो और न ही वे किसी उद्धारक के अस्तित्व में विश्वास करते हैं। जैनों का मत है कि व्यक्ति को सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान तथा सम्यक-चारित्र के माध्यम से स्वयं ही अपना आत्म-उद्धार करना है या मुक्ति प्राप्त करनी है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि मुक्ति या निर्वाण जन्म, मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र को समाप्त कर देता है। जिस समय आत्मा मुक्ति प्राप्त करता है, वह अपने अनन्तानंद और अनन्तज्ञान में अवस्थित हो जाता है।
जैनों में न तो ईसाइयों के पोप (प्रधान धर्माध्यक्ष) के समान कोई एक सर्वाधिकार सम्पन्न नेता है और न ही कोई सर्वोच्च अधिकार सम्पन्न प्रामाणिक व्यक्ति है। तथापि, इनमें कुछ साधु, गुरु या शिक्षक, उपाध्याय और श्रावक नेता होते हैं जिनका वे विशेष आदर करते हैं। इनकी अनेक पवित्र पुस्तकें या आगम (स्क्रिप्चर्स) हैं (परिशिष्ट 2 देखिये) लेकिन ईसाइयों की बाइबिल के समान एकमात्र पवित्र पुस्तक नहीं है। फिर भी, (दूसरी सदी ईस्वी का) तत्त्वार्थसूत्र जैनधर्म की एक सर्वाधिक मान्य एवं सर्वसमावेशी पुस्तक है। इन सब माध्यमों के बावजूद भी, इस मत मे प्रत्येक व्यक्ति को सत्य की खोज स्वयं करनी पड़ती है क्योंकि यहां न तो कोई पुरोहित होता है और न ही ऐसी पवित्र पुस्तकें हैं जो सभी समस्याओं या प्रश्नों के उत्तर दे सकें। जैनधर्म के सिद्धांतों में स्वयं सत्यापन की विवक्षा रहती है जिससे इसका अनुयायी प्रयोगशाला में एक शोधार्थी के समान स्वयं सत्य की खोज कर सके।
जैनों के 'दिगम्बर' (अचेल) और श्वेताम्बर (श्वेतपट या सचेल) प्रमुख सम्प्रदाय हैं। ये दोनों ही सम्प्रदाय मूर्तिपूजा में विश्वास करते हैं। लेकिन इनकी मूर्तियां भिन्न-भिन्न प्रकार की होती हैं। श्वेताम्बरों की मूर्तियों की आंखें, ओष्ठ व धड़ मंडित, जड़ित या सज्जित होते हैं।
दिगम्बर पंथ का विश्वास है कि साधुओं को सभी चीजों-यहां तक कि वस्त्रों का भी त्याग कर देना चाहिये। इसके विपर्यास में, श्वेताम्बर साधु सफेद वस्त्र पहनते हैं। दिगम्बरों के अनुसार जिन (भगवान) किसी भी
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