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जैन-धर्म पर भी शांति नहीं मिली। उल्टे मनुष्य को चिन्ताएं ज्यादा होगई, दुःख बढ़ गये और मानवता का सर्वनारा हो गया।
यदि वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो यह सब लोगों के भौतिकवाद के कुचक्र में फंस कर दुनियां के भोग विलासों को ही जीवन सर्वस्व समझने या खाने, पीने मोज उड़ाने को अपना लक्ष्य बना लेने का ही दुष्परिणाम है जो संसार को संकट के सागर में ढकेलता चला जा रहा है। बाहरो भोगोपभोग को इन नाना सामग्रियों को चकाचौंध ने मनुष्य को बुद्धि को अन्धा बना दिया है, जिससे वह अन्तरात्मा के प्रकाश को न देख कर स्वार्थान्ध होकर दुनियां की सम्पूर्ण सामग्रियों पर एकाधिकार करने के लिए भीषण दानवीय रूप में प्रकट हो रहा है। हम संसारी जीव आज से नहीं, अनादि से हो इन्द्रियों के दास, पाप वासनाओं में लिप्त विषयो व कषायो हो रहे हैं और इनके वश होकर अपने आपको भूल कर न जाने क्या २ दुष्कृत्य करते आ रहे हैं। यह सब इस लिये कि हमने पर वस्तुओं के भोगने में सुख समझ रक्खा है, और सच्चा सुख कहां है व कैसे वह मिल सकता है, इस बात पर भ्रमवश विचार ही नहीं किया। यही कारण है जो हम अब तक न तो स्वयं हो सुखी बन सके और न संसार में ही शांति स्थापित कर सके। सुख का सच्चा मार्ग न जानने तथा उसे कहीं का कहीं प्रात करने को मूर्खतापूर्ण काशिशों के करते रहने के कारण होनाधिक रूप में अशांति और क्लेशों का अनुभव करते हुए हम अपने बहुमूल्य जीवन का अपने हाथों ही बर्बाद करते रहते हैं।
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