Book Title: Jain Dharm
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Nathuram Dongariya Jain

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Page 63
________________ जैन-धर्म [ ५८ ] एक का धर्मानुकूल चलने लगना कठिन है— चाहे जितना सुन्दर, जोशीला, तर्कपूर्ण, सत्य और कल्याणकारक उपदेश दीजिये; सैकड़ों मनचलों, कामांधों, दुष्टों, अभिमानियों और दुनियां के शौक को ही सब कुछ समझने वालों के कानों और हृदयों पर जूं तक नहीं रेंगती, और वे दूसरों को सताने, बर्बाद करने, बहिन बेटियों की बेइज्जती करने, धर्म और धर्मस्थानों पर हमला कर उन्हें नष्ट भ्रष्ट करने, धन माल हड़पने, स्वतन्त्रता का अपहरण कर अन्याय व अत्याचार करने आदि पर तुले बैठे रहते हैं। ऐसे समय जबकि कोई आततायी किसी सद्गृहस्थ के जान माल आदि के अपहरण करने की कोशिश करता है या उसके धर्म व धर्मस्थानों को नष्ट भ्रष्ट करके अपनी धर्मान्धता की पराकाष्ठा दिखाना चाहता है जैनधर्म कहता है कि उस समय गृहस्थ को फौरन युक्ति, बल, ख़जाना और तलवार आदि साधनों से अपने धर्म, देश, समाज, कुटुम्ब व अपनी और अपने आश्रितों की रक्षा करनी ही चाहिये । सम्भव है कि इस समय के संघर्ष में आततायी को चोट लग जाय या उसकी जान चली जाय; किन्तु आत्मरक्षा की भावना से लड़ने वाले गृहस्थ को संकल्पी हिंसा का दोष नहीं लगता; इसके अतिरिक्त आततायी को शिक्षा देने और उसका भविष्य सुधारने तथा अन्य लोगों को पाप से भयभीत करने के लिये उसे न्यायानुकूल यथायोग्य राज्यदंड भी दिलाना चाहिये ताकि फिर किसी को वैसा कार्य करने का साहस न हो सके । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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