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जैन-धर्म
[ ८२ ] अपेक्षा अनेक धर्म, वस्तु में जो कि वास्तविक रूप से विद्यमान हैं, अनेक या एक समय में भिन्न २ रूप में किसी एक की मुख्यता और शेष की गौणता से कहे और माने जाने चाहिये । यही स्याद्वाद प्रणाली है जो वस्तु के वास्तविक ज्ञान के होने में सहायक और तत्वज्ञान को पूर्णता की ओर ले जाने वाली है। एक दृष्टि से जानी गई वस्तु और उसका ज्ञान अधूरा व आंशिक है जब तक उस पर पूर्ण रूप से विचार न किया जाये; किन्तु विश्व के दार्शनिक अपने एकांगिक वस्तु विज्ञान को ही पूर्ण कहना और समझाना चाहते हैं एवं अपने उस एक ही दृष्टिकोण को पूर्ण सत्य तथा अन्यों को असत्य कह कर हठ और पक्षपात का आश्रय लेकर, संकुचित व अनुहार बन कर अपना भिन्न सम्प्रदाय खड़ा कर आपस में द्वष और मात्सर्य करने लगते हैं। जब कि जैन दर्शन सब दर्शनों का समन्वय कर उन्हें पक्षपात छोड़ कर वस्तु को अनेक धर्मात्मक स्वीकार करने और उनके अधूरे ज्ञान को पूर्णता की ओर लेजाने की पक्षपातहीन उदारतापूर्ण घोषणा कर दुनियां के लिए युक्तिपूर्ण मौलिक और वास्तविक शिक्षा प्रदान करता है। जैन दर्शन का यही दृष्टिकोण पर्याप्त रूप से सार्वभौम धर्म के निर्माण में बुन्याद का कार्य कर सकता है।
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