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जैन-धर्म
[८१] रूप, अनित्य रूप, सद्रूप असऐप, आदि कही और मानी जा सकती है, वास्तव में वह है भी ऐसी ही।
प्रश्न-एक ही वस्तु को सत् और असत् मानने में स्पष्टतया विरोध आता है जो सत् है वही असत् कैसे ?
उत्तर—यह विरोध ठीक होता, यदि जिस दृष्टि से सत् कहा गया है उसीसे असत् भी कहा जाता; किन्तु ऐसा नहीं है। वस्तु को स्वरूप की दृष्टि से सत् और पर रूप से असन् कहने में कोई बाधा नहीं आती और वस्तु के सम्बन्ध में अनुभव भी ऐसा ही होता है-मिसाल के तौर पर जीव को ही ले लीजिये, जीव अपने गुणों और अवस्थाओं की दृष्टि से सत् रूप है और परअजीव के गुणादि की अपेक्षा असत् रूप है अर्थात् जीव, जीव है, अजीव नहीं। यदि जीव को जीवत्व की दृष्टि से ही असत् माना या कहा जाता तो अवश्य विरोध आता; किन्तु ऐसा नहीं है। सोना, सोना है, चांदी नहीं इस भांति एक ही सोने में स्वरूप का अस्तित्व और पररूप का नास्तित्व दोनों बातें मौजूद हैं। यदि ऐसा न माना जायगा तो वस्तु के स्वरूप की न तो व्यवस्था बन सकेगी और न उसका ठीक २ ज्ञान ही हो सकेगा। उदाहरणार्थ यदि सोना सब दृष्टियों से सत् रूप ही माना जावे
और पररूप से असत् न माना जाये तो वह चांदी भी हुआ, तांबा भी हुआ और सब कुछ हुआ ; क्योंकि सब दृष्टियों से सद्रूपता ही स्वीकार की गई है, न कि स्वरूप से सद्रूपता और पररूप से असद्पता। अतः अनेक दृष्टिकोण की
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