Book Title: Jain Dharm
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Nathuram Dongariya Jain

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Page 106
________________ जैन-धर्म [१०१ ] सन्तान क्रम से नाना रूप में प्रकट होती रहती है। दुःखमय अवस्था का बोध प्राप्त कर आत्मा को सुखमय बनाने और दुःखों से छूटने का प्रयत्न प्रारम्भ करने से वह संसार बंधन से मुक्त हो जाती है । इसलिए जबसे संसार बंधन है तभी से उससे छूटने का उपाय भी, और इस बन्धन से छूटने एवं दुःखों व रागादि विकारों पर विजय प्राप्त करने के वीरतापूर्ण-उपाय या साधन को ही जैनधर्म कहते हैं। अतः सिद्ध है कि संसार से छूटने का उपाय ( जैनधर्म ) संसार की भांति ही अनादि होना चाहिये। यह बात दूसरी है कि उसके जानने, प्रकट करने या धारण करने वाले कभी कम कभी अधिक और कभी बिल्कुल ही न पाये जाते हों, किंतु इससे संसार के दुखों से छूटने के उपाय स्वरूप धर्म का अभाव नहीं माना जा सकता। अब ज़रा इतिहास व वेद पुराणादि साहित्य में जैनधर्म के अस्तित्व और तत्संबन्धित प्राचीनता पर दृष्टिपात कीजिए। कहा जाता है कि दुनियां की सबसे प्राचीन पुस्तक वेद है। इन वेदों में ऋषियों द्वारा जैन तीर्थंकरों (मुख्य प्रचारकों) के नामों का उल्लेख मिलता है। अतः कम से कम उन ऋषियों और वेदों की उत्पत्ति से भी पूर्व जैनधर्म का अस्तित्व स्वतः सिद्ध हो जाता है; क्योंकि जब वे तीर्थंकर हो गये थे और जैसे २ सन्होंने कार्य किए थे उनका तदनुसार वर्णन उनके हो जाने के पश्चात् ही हो सकता है । वेद के जिन मंत्रों में जैन तीर्थंकरों के नामों का या अहंत का उल्लेख है उनमें से कुछ यहां उद्धृत किए जाते हैं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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