Book Title: Jain Dharm
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Nathuram Dongariya Jain

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Page 117
________________ जैन-धर्म [ ११२ ] अस्तित्व हुआ करता है। यहां तक कि बौद्ध दर्शन का कर्म भी जैनदर्शन के कर्म से भिन्नार्थवाचक हुआ करता है। उपर्युक्त कारणों से ही हम जैनधर्म को बौद्धधर्म की एक शाखा मानने को तैयार नहीं हैं।" [अनेकान्त वर्ष ३ किरण ७ ] सुप्रसिद्ध इतिहासवेत्ता प्रोफेसर मैक्समूलर कहते हैं "विशेषतः प्राचीन भारत में किसी धर्मान्तर से कुछ ग्रहण करके एक नूतन धर्म प्रचार करने की प्रथा ही नहीं थी, जैनधर्म हिन्दू धर्म से सर्वथा स्वतन्त्र है, उसकी शाखा या रूपान्तर नहीं।" डाक्टर ए. गिरनाट [ Dr. A. Guernot] नामक फ्रेंच विद्वान लिखते हैं-- “Concerning the antiquity of jainism Comparatively to Budhism, the former is truly more ancient than the latter. There is very great ethical value in jainism for men's improvement. Jainism is a very original, independent and systomatical doctrine.” अर्थात् जैनधर्म और बौद्धधर्म की प्राचीनता के सम्बन्ध में मुकाबला करने पर जैनधर्म बौद्धधर्म से वास्तव में बहुत प्राचीन है । मानव समाज की उन्नति के लिए जैनधर्म में सदाचार का बड़ा मूल्य है। जैनधर्म एक मौलिक, स्वतन्त्र और नियमित सिद्धान्त है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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