Book Title: Jain Dharm
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Nathuram Dongariya Jain

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Page 115
________________ जैन-धर्म [ ११० ] श्रीयुत महामहोपाध्याय, सत्यसम्प्रदायाचार्य, पण्डित राममिश्र जी शास्त्री, प्रोफेसर संस्कृत कालेज बनारस ने पौष शुक्ला १ सं० १६६२ को व्याख्यान देते हुए जो जैनधर्म के विषय में कहा था, उसका कुछ अंश नीचे दिया जाता है 'ज्ञान, वैराग्य, शान्ति, क्षांति, अदम्भ, अनीर्ष्या, अक्रोध अमात्सर्य, अलोलुपता, शम, दम, अहिंसा, समदृष्टिता इत्यादि गुणों में एक २ गुण ऐसा है कि जहां वह पाया जाय वहां पर बुद्धिमान पूजा करने लगते हैं । तत्र तो जहां ( जैनधर्म में ) पूर्वोक्त सब गुण निरतिशय सीम होकर विराजमान हैं, वहां उनकी पूजा न करना अथवा ऐसे गुरण पूजकेों की पूजा में बाधा डालना क्या इन्सानियत का कार्य है ? मैं आपको कहां तक कहूँ बड़े २ नामी आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में जो जैन मत का खण्डन किया है उसे सुन व देख कर हँसी आती है । स्याद्वाद का यह जैनधर्म अभेद्य किला है । उसके अन्दर वादी प्रतिवादियों के माया मय गोले नहीं प्रवेश कर सकते सज्जना ! एक वह दिन था कि जैन संप्रदाय के आचार्यों की हुङ्कार दश दिशायें गूँज उठती थीं। जैन मत तत्र से प्रचलित हुआ जब से संसार में सृष्टि का आरम्भ हुआ । इसमें मुझे किसी प्रकार का उम्र नहीं कि जैन दर्शन वेदांतादि दर्शनों से पूर्व का है । आदि... । स्व० प्रसिद्ध इतिहासज्ञ विद्वान् साहित्यरत्न लाला कन्नोमल एम० ए०, सेसन जज धौलपुर ने अपने एक लेख में लिखा था— Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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