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जैन-धर्म
[ १९९] __ "सभी लोग जानते हैं कि जैन धर्म के आदि तीर्थङ्कर श्री ऋषभदेव स्वामी हैं, जिनका काल इतिहास परिधि से कहीं परे है। इनका वर्णन सनातन धर्मी हिन्दुओं के श्री मद्भागवत पुराण में भी है। ऐतिहासिक गवेषणा से मालूम होता है कि जैनधर्म की उत्पत्ति का कोई निश्चित काल नहीं है। प्राचीन से प्राचीन ग्रन्थों में जैनधर्म का हवाला मिलता है।
अब हम, जो लोग बिना किसी आधार के जैनधर्म का हिन्दू धर्म या बौद्ध धर्म की शाखा कहने लगते हैं या उनसे उसकी उत्पत्ति बताने लगते हैं, उनके भ्रम को दूर करने के लिए
और प्रमाण उपस्थित करते हैं-श्रीयुत् हरिसत्य भट्टाचार्य बी० ए०, बी० एल० लिखते हैं
जैन तथा बौद्ध धर्म के तत्वों की यदि ठीक २ आलोचना की जाय तो यह स्पष्ट रूप में प्रकट हो जायगा कि ये दोनों धर्म एक दूसरे से पूर्णतया पृथक हैं। बौद्धों का कहना है कि शन्य ही एक मात्र तत्व है। जैनों के मतानुसार सत्पदार्थ है एवं उसकी संख्यायें अगणित हैं । बौद्धमत के अनुसार
आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं हैं, परमाणु का भी कोई अस्तित्व नहीं । दिक् , काल, धर्म [गतितत्व ये कुछ भी नहीं है, ईश्वर नहीं है, किन्तु जैनों के मत में इन सबों की सत्ता मानी जाती है । बौद्धों का कहना है कि निर्वाण लाभ होते ही जीव शून्य में विलीन हो जाता है, किन्तु जैनमत के अनुसार मुक्त जीव का अस्तित्व चिर-आनन्दमय है, और वही उसका सच्चा
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