Book Title: Jain Dharm
Author(s): Nathuram Dongariya Jain
Publisher: Nathuram Dongariya Jain

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Page 113
________________ जैन-धर्म [ १०८ ] ७ – योगवशिष्ठ रामायण, वैराग्य प्रकरण अध्याय १५ श्लोक ८ में श्रीरामचन्द्र जी जिनेन्द्र के सदृश शांत प्रकृति होने की इच्छा प्रकट करते हैं, यथा: नाहं रामो न मे वांछा भावेषु च न मे मनः । शान्तिमासितुमिच्छामि स्वात्मन्येव जिनो यथा ॥ ( इससे प्रकट है कि रामचन्द्र जी के समय में जैनधर्म का प्रकाश फैल रहा था और रामचन्द्र जी ने जैनग्रन्थानुसार आत्मशान्ति प्राप्त करने की इच्छा पूकट की थी, जैनधर्मानुसार तो रामचन्द्र जी दिगम्बर दीक्षा धारण कर तपस्वी हुए और अन्त में मोक्ष को प्राप्त हुए हैं । ) ८ - रामायण के बालकांड, सर्ग १४, श्लोक २२ में लिखा है कि राजा दशरथ ने श्रमरण गणों ( अर्थात् दिगम्बर जैनसाधुओं का अतिथि सत्कार किया “ तापसा भुञ्जते चापि श्रमणा भुञ्जते तथा । " ( बालकांड सर्ग १४ श्लोक २२ ) भूषण टीका में श्रमण शब्द का अर्थ दिगम्बर अर्थात् सर्व वस्त्ररहित जैनमुनि किया है यथा “श्रमणाः दिगम्बराः श्रमणा वात वसना इति ।" जैनधर्म की प्राचीनता के सम्बन्ध में भारत में स्वराज्य आन्दोलन के सुप्रसिद्ध नेता, हिन्दू धर्म के महान् विद्वान् एवं इतिहासज्ञ स्वर्गीय लोकमान्य पंडित बालगङ्गाधर तिलक ने तारीख ३० नवम्बर सन् १६०४ को श्वेताम्बर जैन कांफ्रेन्स Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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