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जैन-धर्म
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__ [ जैनधर्म की प्राचीनता
यह तो मानना ही जाहिये कि समीचीनता का प्राचीनता के साथ कोई घनिष्ठ संबन्ध नहीं है, और न कोई यह नियम है कि जो कुछ प्राचीन है वह सब कुछ उपादेय ही है तथा नवीन सब हेय, क्योंकि ऐसा मान लेने पर पापवासना आदि दुष्कर्म भी केवल प्राचीनता बल पर उपादेय ठहर जावेंगे, जो कि अनादि काल से संसार में विद्यमान हैं, और आत्माओं को सांसारिक जाल में फँसाए रख कर उन्हें जन्म मरणादि के सङ्कटों में घसीट रहे हैं । इस लिए समीचीनता (अच्छाई) यदि आज ही उत्पन्न हुई हो तो वह कल्याण की दृष्टि से तुरन्त ग्रहण करने योग्य है, न कि बुराई, जो कि असंख्य वर्षों से चली आ रही हो। इस भांति यदि जैन-धर्म का उदयकाल प्राचीन न भी माना जाय, किन्तु है वह सार्व और समीचीन धर्म, जिससे कि विश्व के न केवल मानव समाज का बल्कि प्राणीमात्र का कल्याण होना उसके उपरोक्त विवेचन से सुनिश्चित है, तो उसकी उपादेयता में भी रञ्च मात्र सन्देह नहीं होना चाहिये। फिर भी जैन धर्म कब और किसके द्वारा संस्थापित हुआ इस प्रश्न को इतिहास प्रेमी पाठकों के मन में उठने से रोका नहीं जा सकता। अतः इसका उत्तर भी सन्तोषप्रद एवं प्रमाण-संगत मिलना चाहिये । साथ ही जैन धर्म के इतिहास के सम्बन्ध में लोक में भ्रम भी
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