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जैन-धर्म
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[८] नन्द मय, वीतराग स्वीकार करने पर भी जैन दर्शन उसे जगत्कर्ता स्वीकार नहीं करता। विज्ञान तो स्पष्टतः दुनियां और उसके पदार्थों, को अनादि अनन्त स्वीकार करता है । अस्तु,
यद्यपि, जैन धर्म परमात्मा की पूजा से उसका खुश होना या न करनेसे नाराज होना, स्वीकार नहीं करता, क्योंकि परमात्मा स्पष्टतः वीतराग है; फिर भी वह परमात्मा की आदर्श के रूप में पूजा, भक्ति करने और आवश्यकतानुसार उसकी जीवन मुक्तावस्था की ध्यानाकार वीतराग शान्त मुद्रा-युक्त प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करनेकी आत्मध्यान और सम्यक्ज्ञान की प्राप्ति के लिये प्रेरणा करता है; क्यों कि परमात्मा बनने के लिए परमात्मा का ध्यान और उसको आदर्श मान कर प्रतिष्ठा करना आवश्यक है। इस भांति जैनदर्शन के परमात्मा, परलोक, कर्मवाद आदि के स्वीकार करने से उसकी आस्तिकता भी स्पष्टतः अक्षुण्ण है। ईश कर्त्तत्व की भ्रमपूर्ण कल्पना को वह अवश्य ही स्वीकार नहीं करता, और उसकी इस मान्यता में युक्ति, तर्क व प्रमाण पूर्णतः उसके साथ हैं
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