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जैन-धर्म
[ १०० ] फैला हुआ है- कोई इसे बौद्ध धर्म की शाखा या बौद्ध धर्म से इसकी उत्पत्ति मानता है, तो कोई हिन्दु धर्म की; कोई भगवान महावीर को जैन धर्म का संस्थापक समझता है, तो दूसरा भ० पार्श्वनाथ को। इन भ्रमात्मक कल्पनाओं का निराकरण होना भी सत्यान्वेषण की दृष्टि से आवश्यक है। अतः अब तक समुपलब्ध हुई भारतीय पुरातत्व की सामग्री, प्राचीन साहित्यक प्रमाणों, एवं प्राच्य व पाश्चात्य अजैन विद्वानों की निष्पक्ष गवेषणात्मक ऐतिहासिक खोजों तथा युक्तियों द्वारा इस सम्बन्ध में भी संक्षेप में विचार किया जा रहा है।
प्रत्येक बुद्धिमान यह भली भांति जानता है कि दुनियां में जबसे कोई रोग है तभी से उसकी औषधि भी अवश्य है। यह बात दूसरी है कि किसी समय उस औषधि का कोई जानकार समुपलब्ध न हो, किन्तु इतने मात्र से औषधि का अभाव नहीं कहा जा सकता । इसी प्रकार अन्धकार जबसे संसार में अस्तित्व रखता है तभी से उसका प्रतिपक्षी प्रकाश भी। संभव है कभी प्रकाश पर अन्धकार की विजय हो जाय और प्रकाश की किरणें क्षीण या अस्तित्वहीन सी दिखाई देने लगें, किन्तु थोड़ी देर पश्चात् प्रकाश की विजय का डंका फिर से बजता हुआ सुनाई पड़ने लगता है। इसी तरह संसार और मुक्ति, जीव की ये दो अवस्थाएँ हैं-पहली दुःखमय और दूसरी सुखमय । दुःखमय अवस्था, जो कि संसार के नाम से पुकारी जाती है, जीव के अपने ही राग द्वेषादि विकारों एवं पापादि दुष्कार्यों के कारण
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